राजनैतिक महत्वकांक्षाओं के बीच न जाने हम कितना आगे निकल आये है कि जनसरोकारों को भी हम नफे नुकसान के तराजू में तौल कर कोई बात करते है। आज बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर की जयंती है जिन्होंने ने कभी राजनैतिक महाव्कंषाओं के भावावेश में आकर फैसला नहीं लिया जो सत्य था वो बताया और वो ही जिया अगर वो चाहते तो इसके विपरीत संविधान में दलितों के लिए भी बहुत कुछ कर सकते थे लेकिन वो एक पूरी व्यवस्था को पंगु नहीं बनाना चाहते थे उनका उद्देश्य केवल इतना था कि एक बड़े तबके को सामाजिक न्याय मिले और उसे बराबर का दर्जा मिल जाए।
पर आज के राजनैतिक दल सही मायने में बाबा साहब को समझ ही नहीं पाए,आज अगर वो होते तो आर्थिक रूप से कमजोर स्वर्णो के सबसे बड़े पक्षकार बनकर खड़े होते जिन्हे एक सोची समझी साजिश के तहत निम्न से निम्नतर किया जा रहा है जो कल अपनी लड़ाई के लिए एक बड़े वोट बैंक के रूप में उभरे।
ये साजिश कहाँ तक सफल होती है ये सवर्णो के पक्षकार जाने पर इतना जरुर तय है की वक्त की लेखनी कोई ऐसी विभीषका न लिख दे जिसे बदलना सबके बस की बात न हो।
ये लिखक के निजी विचार है।
- संपादकीय
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