हाल ही में देश के कोने-कोने में बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती मनाई गई। दलित समाज का शायद ही कोई व्यक्ति या तबका रहा हो, जो विशाल बौद्धिक बाबासाहेब की जयंती से खुद को अलग कर पाया हो।
हमने भी अपनी क्षुद्र ही सही, लेकिन तुच्छ बौद्धिकता के साथ पूरी श्रद्धा से बाबासाहेब को याद किया। उनकी प्रतिमा को साक्षी मानकर उनकी संतानों के समग्र विकास की पुरजोर प्रार्थना की। साथ ही, उनसे तहे दिल उनकी उन संतानों को भी सदबुद्धि देने की गुजारिश की, जो दलित उत्थान के नाम पर अपनों को ही ठगते हैं। यहां "उनकी संतानों" से आशय दलित समाज के उस तबके से है, जो न सिर्फ उन्हें (बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर को) अपना भगवान मानता है, बल्कि उन्हीं की दिखाई-बताई राह पर चलने की दुहाई भी देता है।
निःसंदेह बाबासाहेब उस कठिन दौर में खुद को न सिर्फ अपने समाज में सिर उठाकर जीने लायक बनाए, बल्कि उस समाज को भी आइना दिखाया, जिसने दलितों को कभी अपनी हिकारत के काबिल भी नहीं समझा। वह वो दौर था, जब दलितों को रत्ती भर भी खुद के अस्तित्व का अहसास तक नहीं था।
महू के लाल का कमाल
मध्यप्रदेश में इंदौर के महू का यह लाल करीब सवा सौ साल पहले के उस दौर में शिक्षा की अलख जगाया, जब अच्छे-अच्छों के लिए शिक्षित होना बड़ी बात थी। दलितों की दलदल जिंदगी से निकल उन्होंने डिग्रियों के पिरामिड खड़े किए और बीए, एमए, पीएच.डी, एम.एससी, डी.एससी, एलएल.डी, डी.लिट, बार-एट-लॉ सहित देश-विदेश से कुल 32 डिग्रियां अर्जित कीं।
यह "भारत रत्न", "बोधिसत्व" न केवल तज्ञ विधिवेत्ता रहा, बल्कि कुशल अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाजसुधारक भी था। दलित बौद्ध आंदोलन का प्रेरणास्रोत और अछूतों (दलितों) को लेकर सामाजिक भेदभाव के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले आंबेडकर ने श्रमिकों, महिलाओं के अधिकारों की भी लड़ाई लड़ी। स्वतंत्र भारत का प्रथम कानून मंत्री, भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार एवं भारत गणराज्य का निर्माता यह ध्येता आज भी प्रासंगिक है।
बड़ी आबादी, बड़ा लक्ष्य
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश की कुल आबादी में 24.4% हिस्सेदारी दलितों की है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु में देश के करीब आधे दलित रहते हैं। देश के 148 जिलों में इनकी आबादी 49.9% तक है, वहीं 271 जिलों में इनकी तादाद 19.9% है। यह बड़ी आबादी देेेश के विकास में नई सामाजिक चेतना की बानगी बन सकती है, बस जरूरत है सही मायने में बाबासाहेब जैसे कृतसंकल्पित विचारों की जो शिक्षा और बौद्धिकता के जरिए ही संभव है। लेकिन मौजूदा परिप्रेक्ष्य और कुछ कथित हितैषी दलित समाज को फिर से सैकड़ों साल पीछे धकेलने पर तुले हैं।
शिक्षा के मामले में फिसड्डी
आज भी देश में स्कूली शिक्षा बीच में छोड़ने (ड्रॉप आउट) वाले बच्चों में दलितों की संख्या सर्वाधिक है। प्राथमिक स्तर पर अनुसूचित जाति के स्कूली बच्चों का ड्रॉप आउट प्रतिशत 4.46% और अनुसूचित जनजाति का 6.93% है। उच्च प्राथमिक में अनुसूचित जाति का 5.51% और अनुसूचित जनजाति का 8.59% है। माध्यमिक स्तर पर अनुसूचित जाति का 19.36% और अनुसूचित जनजाति का 24.68% है।
उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश दर में भी दलितों की भागीदारी तमाम मशक्कत और सहूलियतों के बावजूद निचले स्तर पर ही है। अनुसूचित जाति में यह 21.1% और अनुसूचित जनजाति में महज 15.4% है। इसमें भी यूूपी, बिहार सबसे फिसड्डी हैं।
बाबासाहेब के चुनिंदा संदेश
● जीवन लंबा होने की बजाय महान होना चाहिए।
● आदमी एक प्रतिष्ठित आदमी से इस तरह से अलग होता है कि वह समाज का नौकर बनने को तैयार रहता है।
● मैं ऐसे धर्म को मानता हूं, जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए।
● बुद्धि का विकास मानव के अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए।
● समानता एक कल्पना हो सकती है, फिर भी इसे एक गवर्निंग सिद्धांत रूप में स्वीकार करना होगा।
● शिक्षित होने के साथ-साथ बौद्धिक होना भी जरूरी है, तभी सामाजिक परिपक्वता संभव है।
● उपासना मूर्तियों की नहीं, उत्कृष्ट विचारों की होनी चाहिए।
जो उन्हें नापसंद था
● अशिक्षा, अज्ञानता, अस्पृश्यता।
● धर्म के नाम पर बंटवारा एवं छुआछूत।
● सामाजिक समरसता के नाम पर छल।
● मूर्ति-पूजा, झूठ, चोरी, हिंसा, मदिरापान।
"लोकतंत्र शासन की वह पद्धति है, जिसमें लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन में बदलाव बगैर खूनखराबे के संभव हो।"- बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर |
मौजूदा परिप्रेक्ष्य और बाबासाहेब
दलित समाज के उत्थान को लेकर बाबासाहेब ने जो परिकल्पना की थी, मौजूदा परिप्रेक्ष्य उसके ठीक उलट है। उनके सिद्धांत और संदेशों से इतर आज का दलित समाज सबकुछ लगभग वही कर रहा है, जो बाबासाहेब को नापसंद था। वह मूर्ति-पूजा के घोर विरोधी थे और उनकी संतानें बड़ी संख्या में उन्हीं की मूर्तियां बनाकर श्रद्धापूर्वक पूजा कर रहीं हैं। वह ताउम्र शिक्षा और बौद्धिकता के हिमायती रहे, जबकि आज के दलित का इनसे कोसों नाता नहीं है।
हालिया बीती आंबेडकर जयंती पर 13 अप्रैल की रात 12 बजते ही बाबासाहेब के अनुयायियों ने जमकर आतिशबाजी की, नारे लगाए, उनकी प्रतिमा/छवि की पूजा कर श्रद्धा गीत गाए। फिर, 14 अप्रैल की सुबह 6 बजे से ही दलित समाज ने बाबासाहेब को हाजिर-नाजिर मानकर झंडावंदन किया और उनकी प्रतिमा/छवि पर माल्यार्पण के बाद बड़े-बड़े लाउडस्पीकर पर भजन-कीर्तन शुरू किए, जो दिनभर चला। शाम होते-होते श्रद्धालुओं की भीड़ सभाओं में बदलती गई, और जगह-जगह तथाकथित दलित उत्थान के मसीहा लच्छेदार भाषणों से भोले-भाले दलितों को नए सिरे से बुद्धू बनाने लगे। किसी ने भी न शिक्षा की बात की, न ज्ञान या सामाजिक उत्थान की। रात का पहर शुरू होने तक आयोजक-प्रायोजक मदिरापान की व्यवस्था किए और नशे में धुत्त हो 'बाबासाहेब की जय' के उदघोष के साथ इति कर लिए।
क्या यही था बाबासाहेब का सपना !
अच्छा ही है कि आज दुनिया में बाबासाहेब साक्षात नहीं हैं, अन्यथा इस दलित संतति को देख उनका स्वच्छ-निर्मल मन कलुषित हो जाता। उनके नाम पर उन्हीं को शर्मिंदगी कराने वाले अहसासों में शायद वे खुद से सवाल कर बैठते कि क्या इन्हीं के लिए उन्होंने संघर्ष किया? क्या यह लोग मूर्तियों के लोभ से उबर अपने बच्चों की शिक्षा और उनके बौद्धिक विकास पर अपना अमूल्य वक्त, धन, सुविधा आदि जाया नहीं कर सकते? जिन खर्चों से आतिशबाजी, हार-पुष्प, झंडा-बैनर, मूर्ति-छवि, मंच-सभा, मांस-मदिरा आदि की व्यवस्था किए, उनसे नौनिहालों की शैक्षणिक सामग्री, उनकी शिक्षा-व्यवस्था, सामाजिक समरसता के लिए सामूहिक सत्संग आदि नहीं कर सकते थे। शायद बाबासाहेब सही ही कहते थे, 'जिनमें विचारों की शक्ति नहीं, उनका सामूहिक बल भी व्यर्थ है'।
■ कृष्णस्वरूप
Very true.
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