बनारस की आन-बान-शान, यहां की संस्कृति जितनी प्राचीन और सराहनीय है, उतना ही खास अंदाज है बनारसियों का भी। जी हां! अल्हड़-अक्खड़-मस्त बनारस से यहां के बाशिंदों को निकाल दें, तो बनारस का "रस" निचुड़ जाएगा। तभी तो, स्वयं देवाधिदेव महादेव भी काशीवासियों के प्रति विशेष लगाव रखते हैं और बनारसी शिव को सिर्फ पूजते ही नहीँ बल्कि जीते हैं। यहां लोग नमस्ते से अभिवादन न कर हर हर महादेव का नारा बुलंद कर एक-दूसरे के गले लग जाते हैं। और यकीन मानिए इसमें धर्म-जाति कभी आड़े नहीँ आती।
खैर, बात अभी "गुरू" बनारसी की हो रही है, फिर मुद्दे पर लौट आते हैं। बनारस में बमुश्किल ही कोई ऐसा मिल पाए, जो स्वयं को‘सरनाम’ (प्रसिद्ध) न समझता हो। मुहल्ले का एक व्यक्ति समूचे मुहल्ले की जानकारी रखता है। उसका विश्वास है कि मुहल्ले के डाकिये से मुख्यमन्त्री तक उसके नाम से परिचित हैं। इतना पर ही विराम लगाने की भूल कदापि न करें, एक आम सा दिखने वाला बनारसी भी प्रधानमंत्री मोदी तक से सीधे बतियाने की हैसियत रखता है।
यहां अभिवादन और टांग खिंचाई के इतने स्वरूप हैं कि दुनिया में शायद ही कहीं और देखने को मिलें। या यूं कहिए जिंदगी का मजा यहां उसके परम अंदाज में और चरम तरीके से लिया जाता है। बनारस में भाषा, संस्कृति, धर्म और शब्दों को सिर्फ बोला नहीं जाता, बल्कि उन्हें ओढ़ा-बिछाया और जिया जाता है। एक तरफ जहां हाय-हैलो और नमस्ते के बजाय महादेव बोलते हैं, वहीँ ‘भो... के’ काशी का सामूहिक और अलहदा संबोधन है, जिसे गाली के रूप में न लें, यह बनारसियों का प्यार है जो अपनों पर लुटाते रहते हैं। यहां के लोग चाहे कितने ही ब्रांडेड और मंहगे कपड़े पहने हों, मगर उसके ऊपर से ओढ़ा जाने वाला मल्टीपरपज गमछे के बिना पहनावा अधूरा है।
"गुरू" बनारसी चाय के बिना जीने में लानत महसूर करता है, सो आठों पहर बनारस के सारे कोने में चाय की दुकान और वहां जमी मजलिस मिल जाएगी। "इ आखिरी ह गुरू" कह-कह के चाय की चुस्कियां लगती रहेंगी और चाय का दौर चलता रहेगा। रोजाना चाय की अड़ी पर जाने कितनी ही सरकारें गिराई और बनाई जाती हैं।
जितना शौक बनारसियों को चाय का होता है, उतना ही पान का। इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है कि चाय पीने के लिए "गुरू" पान थूका जाता है और चाय खत्म होते ही मुँह में पान घुला जाता है। बनारसी गाल के एक तरफ पान घुलाए रखते हैं और दूसरी तरफ से गुलाब जामुन खा लिया करते हैं।
खानपान के साथ ही "गुरू" बनारसी भाषा को लेकर भी काफी चूजी होते हैं। पढ़ाई-लिखाई में डॉक्टरेट भी यहां बनारसी बोलने में ही अपनी शान समझते हैं। 'जिया राजा’ जैसे अनेकानेक संबोधन हो या गालियों की मोहब्बत बनारसी लुटाने में देर नहीँ करते। शर्त इ ह कि हंसना- गरियाना-याराना इहां सब बनारसी (भोजपुरी) में चलेला।
कुल मिलाकर शब्दों में "गुरू" बनारसी को समेटना मुश्किल है, गुरू शब्द का असल मायने जानने ने लिए आपको बनारस जाकर वहां की संस्कृति में रचना-बसना पड़ेगा। तिस पर से भी यदि ऐसी कोई संभावना नहीं है, तो आप हिन्दी के मशहूर साहित्यकार काशीनाथ सिंह की “काशी का अस्सी” तो पढ़ ही लें। गुरू को समझने में सहूलियत होगी।
खैर, बात अभी "गुरू" बनारसी की हो रही है, फिर मुद्दे पर लौट आते हैं। बनारस में बमुश्किल ही कोई ऐसा मिल पाए, जो स्वयं को‘सरनाम’ (प्रसिद्ध) न समझता हो। मुहल्ले का एक व्यक्ति समूचे मुहल्ले की जानकारी रखता है। उसका विश्वास है कि मुहल्ले के डाकिये से मुख्यमन्त्री तक उसके नाम से परिचित हैं। इतना पर ही विराम लगाने की भूल कदापि न करें, एक आम सा दिखने वाला बनारसी भी प्रधानमंत्री मोदी तक से सीधे बतियाने की हैसियत रखता है।
यहां अभिवादन और टांग खिंचाई के इतने स्वरूप हैं कि दुनिया में शायद ही कहीं और देखने को मिलें। या यूं कहिए जिंदगी का मजा यहां उसके परम अंदाज में और चरम तरीके से लिया जाता है। बनारस में भाषा, संस्कृति, धर्म और शब्दों को सिर्फ बोला नहीं जाता, बल्कि उन्हें ओढ़ा-बिछाया और जिया जाता है। एक तरफ जहां हाय-हैलो और नमस्ते के बजाय महादेव बोलते हैं, वहीँ ‘भो... के’ काशी का सामूहिक और अलहदा संबोधन है, जिसे गाली के रूप में न लें, यह बनारसियों का प्यार है जो अपनों पर लुटाते रहते हैं। यहां के लोग चाहे कितने ही ब्रांडेड और मंहगे कपड़े पहने हों, मगर उसके ऊपर से ओढ़ा जाने वाला मल्टीपरपज गमछे के बिना पहनावा अधूरा है।
"गुरू" बनारसी चाय के बिना जीने में लानत महसूर करता है, सो आठों पहर बनारस के सारे कोने में चाय की दुकान और वहां जमी मजलिस मिल जाएगी। "इ आखिरी ह गुरू" कह-कह के चाय की चुस्कियां लगती रहेंगी और चाय का दौर चलता रहेगा। रोजाना चाय की अड़ी पर जाने कितनी ही सरकारें गिराई और बनाई जाती हैं।
जितना शौक बनारसियों को चाय का होता है, उतना ही पान का। इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है कि चाय पीने के लिए "गुरू" पान थूका जाता है और चाय खत्म होते ही मुँह में पान घुला जाता है। बनारसी गाल के एक तरफ पान घुलाए रखते हैं और दूसरी तरफ से गुलाब जामुन खा लिया करते हैं।
खानपान के साथ ही "गुरू" बनारसी भाषा को लेकर भी काफी चूजी होते हैं। पढ़ाई-लिखाई में डॉक्टरेट भी यहां बनारसी बोलने में ही अपनी शान समझते हैं। 'जिया राजा’ जैसे अनेकानेक संबोधन हो या गालियों की मोहब्बत बनारसी लुटाने में देर नहीँ करते। शर्त इ ह कि हंसना- गरियाना-याराना इहां सब बनारसी (भोजपुरी) में चलेला।
कुल मिलाकर शब्दों में "गुरू" बनारसी को समेटना मुश्किल है, गुरू शब्द का असल मायने जानने ने लिए आपको बनारस जाकर वहां की संस्कृति में रचना-बसना पड़ेगा। तिस पर से भी यदि ऐसी कोई संभावना नहीं है, तो आप हिन्दी के मशहूर साहित्यकार काशीनाथ सिंह की “काशी का अस्सी” तो पढ़ ही लें। गुरू को समझने में सहूलियत होगी।
-सोनी सिंह
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