सर्वोत्तम पक्षकार - Kashi Patrika

सर्वोत्तम पक्षकार

बात उन दिनों की है, जब हम बच्चे हुआ करते थे। घर में सबसे बड़ी थीं हमारी बड़की अम्मा। वैसे तो उनमें तमाम खासियत थी, लेकिन सबसे बड़ी बात उनमें थी बच्चों को स्वस्थ और प्रसन्न रखने की। 

बड़की अम्मा पर तो जैसे एक ही धुन सवार रहा करती थी, वह थी बच्चों को खाना खिलाने की। वैसे बच्चों से जुड़े ज्यादतर कामों में उनकी खासी दिलचस्पी थी, पर लगता था इनमें खाना खिलाने वाला उनका "फेवरेट" था। यहीं वजह रही होगी, तभी तो बड़की अम्मा शिशु जब खाने लगता था, तब ही उसकी देखभाल में दखल देना शुरू करती थीं। हालांकि, वह मातृत्व सुख से वंचित रहीं, पर कई बच्चों का लालन-पालन मां से भी बढ़कर किया। मां से बढ़कर इसलिए कि उन्होंने बच्चों की देखरेख के किसी काम की जिम्मेदारी नहीँ ली। घर की बड़ी बहू होने का बड़की अम्मा ने भरपूर लाभ उठाया और घर के छोटे-बड़े काम से पल्ला झाड़ केवल बच्चों संग रमी रहतीं। रूखे और रौबीले स्वभाववाली अम्मा से घर की औरतें दूर ही रहतीं। आपसी संवाद भी न के बराबर ही होता। सिर्फ चाय या खाने को लेकर कई बार उन्हें मां से बोलते सुना था। इससे उलट बच्चों के लिए उनके पास नित नई कहानी होती, कभी-कभी तो दिनभर में दो से तीन कहानियां भी हो जातीं। हां, एक बात जरूर था कि बड़की अम्मा सभी बच्चों के साथ एक सी नहीं थीं। क्यों? ये कभी सोचा नहीँ, क्योंकि मैं उनकी दुलारी थी।

लौटते हैं अब मूल बात पर सो यह कि बच्चों को ज्यादा से ज्यादा खाना ठुंसा (ठुंसाना इसलिए कि पेट पहले से ही गले तक भरा होता था) सकना उनका मूल उदेश्य होता, जिसकी पूर्ति के लिए सारी रस्साकसी थी। तरह-तरह के स्वांग रचे जाते। कभी खुले आसमान तले चिड़िया दिखा कर, कभी रूमाल और साबुन थमा कर, कई दफे साबुन लगा-लगा कर हम खूब झाग बनाते और वो खिलाती रहतीं। कभी पाउडर का पूरा डब्बा जमीन पर उड़ेलने को मिलता, तो कभी पानी से भरी बाल्टी में छप-छप करने का मौका। उनका यह काम सिर्फ घर की चहारदीवारी तक ही नहीँ सिमटा था। यकीन करना मुश्किल तो है, लेकिन बड़की अम्मा ने स्कूल की प्रधानाचार्या तक से न केवल बच्चों के साथ स्कूल आने की अनुमति ले ली थी, बल्कि छुट्टी तक वहीँ रुकने की भी। लंच ब्रेक तक पेड़ की छांव में बैठ कर वो फल काटतीं, जूस निकालतीं और ब्रेक होते ही बच्चों के लिए खाने की कई किस्में मौजूद होतीं। खाने के बाद जूस या दूध होता पिलाने को। स्कूल में फुसलाने की मशक्कत से भी बच जातीं, क्योंकि झूला झूलते बच्चे आनाकानी नहीँ करते। अजीबोगरीब आदत के कारण बाहर भी लोग उन्हें इसी प्रसंगवश याद करते।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनूरूप।।
जथा अनेक वेष धरि नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव दिखावअइ आपनु होइ न सोइ ।।




कई वर्ष हो गए बड़की अम्मा को गुजरे आज भी उनका वह चेहरा याद आता है, जब आंखें मटका-मटका कर वह कहानियां सुनाती थीं। आंखों में गजब की चमक होती थी उनके, क्या जाने यह कहानी के चलते होती या उद्देश्य पूर्ति की खुशी। बचपन में उनकी इस आदत पर कई बार मैं बिफर उठती थी। आज लगता है काश! वह उतने ही प्यार से फिर खिलाने को लौट आतीं।

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