लोकतंत्र के कीमियागर बाबू जगजीवन राम/सदानन्द शाही - Kashi Patrika

लोकतंत्र के कीमियागर बाबू जगजीवन राम/सदानन्द शाही

     लोकतंत्र के कीमियागर बाबू जगजीवन राम/सदानन्द शाही

बाबू जगजीवन राम को 1977 के आम चुनावों में सुनने का अवसर मिला था। तत्कालीन राजनीतिक मसलों के अलावा जो बात ध्यान में रह गयी वह है उनकी भाषा। छोटे, सरल सुस्पष्ट वाक्य। सीधे और साफ ढंग से बिना लाग लपेट के अपनी बातें कह देने और सुनने वाले के तह तक उतर जाने की कला। मेरे किशोर मन में जगजीवन राम की ऐसी छवि बनी जिसने आगे चल कर जाति और वर्ग को योग्यता से जोड़कर देखने वाले पूर्वाग्रहों से मुक्त होने में काफी मदद की।

काफी अन्तराल के बाद सन् 2007 में बाबू जी के जीवन और चिन्तन से परिचित होने का अवसर मिला। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बाबू जगजीवन राम पीठ कायम हुई। उसका उद्घाटन करने तत्कालीन सामाजिक न्याय और सहकारिता मन्त्री श्रीमती मीरा कुमार को आना था। इस कार्यक्रम की आयोजन समिति से मैं भी जुड़ा हुआ था। यह तय हुआ कि ‘बाबू जगजीवन राम पीठ’ की स्थापना के पीछे जो विचार हैं, उन्हें एक ब्रोशर के रूप में प्रकाशित करके वितरित किया जाय। ब्रोशर तैयार करने के क्रम में बाबू जगजीवन राम के व्यक्तित्व और विचारों का अध्ययन-अनुशीलन किया।

बाबू जी का जीवन कई कारणों से विलक्षण है। वे अकेले ऐसे दलित नेता हैं जो राष्ट्रीय आन्दोंलन की मुख्यधारा में रहे है। आजादी के पहले स्वाधीनता आन्दोलन में तथा राष्ट्रीय सरकारों में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं। आजादी के बाद बनी सरकारों में शामिल होकर राष्ट्र निर्माण के कार्य में योगदान किया। राष्ट्रीयआन्दोलन के नेताओं का मानना था कि आजादी हासिल करना मुख्य लक्ष्य है। आजादी के बाद दलित मुक्ति के प्रश्न को हल कर लिया जायेगा, जबकि दलित नेतृत्व इसे लेकर सशंकित था। इसलिए दलित नेतृत्व ने दलित मुक्ति के सवाल को तरजीह दी। गांधी और अम्बेडकर के बीच की बहस मुख्य रूप से यही थी । बाबू जगजीवन राम ने राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा में रहते हुए दलित मुक्ति के लिए काम करने का रास्ता चुना। यह बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण था। राष्ट्रीय आन्दोलन के नेतृत्व पर सवर्ण जातियों का प्रभुत्व था। गांधी के अनुनायी होते हुए भी राष्ट्रीय आन्दोलन के नेतृत्व वर्ग में सभी गांधी नहीं थे। इसलिए अपनी दलित पृष्ठभूमि के नाते बाबू जगजीवन राम को राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं के साथ काम करते हुए जातीय भेदभाव और विद्वेष का दंश झेलना पड़ा। दूसरी तरफ उन्हें दलित नेतृत्व के व्यंग्य बाण भी सहने पड़े। भीतर और बाहर दोनों तरफ से मिलने वाले व्यंग्य और विद्वेष से विचलित हुए बगैर बाबूजी ने राष्ट्रनिर्माण के वृहत्तर सरोकारों और दलित मुक्ति के विशेष सरोकारों को दृढ़ता पूर्वक अंजाम दिया। बाबू जी  के जीवन से परिचित होने पर उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खासियत नजर आती है- वह है विनम्रता और दृढ़ता का दुर्लभ संयोग। इस विनम्रता और दृढ़ता का सम्बन्ध संत रैदास की बानी से है:

प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी
जाकी अंग अंग बास समानी ।।

अपने प्रभु के साथ रच बस कर संत रैदास एकमेक हो गये थे। इस एकमेक भाव ने उन्हें सहज आत्मविश्वास से भर दिया था जिसके बल पर वे सामाजिक दंश से उपर उठ कर बेगमपुरा शहर के नागरिक बन सके थे। तुलसीदास के रामराज्य की कल्पना की चर्चा करते लोग अघाते नहीं है; पर मेरी राय में  रैदास का बेगमपुर रामराज्य से बेहतर और उन्नत संकल्पना है । (इस पर फिर कभी) संत रैदास का ‘बेगमपुरा’ ऐसा शहर है, एक ऐसा वतन, जिसमें सभी के लिए खैरियत है। बाबू जगजीवन राम भी इसी बेगमपुरा के नागरिक थे। संत रविदास कहते हैं - ‘जो हम सहरी सो मीतु हमारा।’ बेगमपुरा एक संकल्पना है। ऐसी संकल्पना जो मन को भेद बुद्धि से मुक्त करके समतामूलक समाज की संरचना करती है। बाबू जगजीवन राम इन्हीं अर्थों में संत रविदास के ‘हम सहरी’ और ‘मीत’ थे।

मुझे याद है, शुरुआती दौर में बहुत से रेडिकल दलित चिन्तकों को संत रविदास की बानी नहीं पसन्द आती थी। उनकी शिकायत थी कि रविदास ‘प्रभुजी। तुम चन्दन हम पानी’ और प्रभुजी! तुम स्वामी हम दासा’ कहते हैं। उन्हें लगता था इतना विनम्र आदमी दलित आन्दोलन का प्रतीक कैसे हो सकता है।  रैदास की विनम्रता दिखाई देती थी दृढ़ता नहीं। वर्ण व्यवस्था ने श्रम को हेय करार दे रखा था। रैदास ने श्रम की संस्कृति को दृढ़तापूर्वक प्रतिष्ठापित किया। जैसे-जैसे दलित आन्दोलन आगे बढ़ा वैसे-वैसे रैदास के बारे में यह समझ विकसित होती गयी।

संत रैदास की यह विनम्रता और दृढ़ता ही है जो बाबू जगजीवन राम को एक ही साथ राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रति सहज और दलित सरोकारों के प्रति सजग बनाये रखती है।बाबू जगजीवन राम ने राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्यधारा में रहते हुए, सरकारों में शामिल होकर दलितोत्थान के लिए जो कार्य किये हैं उनका मूल्यांकन होना बाकी है। इसके लिए हमें दलित आन्दोलन के आगामी चरण का इन्तजार करना होगा। 


बाबू जी ने अपने एक व्याख्यान में कहा है- ‘शरीर को ही गुलाम नहीं, किस तरह हमारे मस्तिष्क को गुलाम बना दिया गया है कि जो हमारे उपर अत्याचार करता है उसको हम अपने से बड़ा मान लेते हैं। सबसे बड़ा हमारे मस्तिष्क का ह्रास इसमें किया गया कि हमने अपने आप को छोटा समझ लिया। जो व्यक्ति खुद अपने आप को छोटा समझता रहेगा, वह कभी बड़ा नहीं बन सकता’ रविदास प्रसिद्ध और मान्य संत होने के बाद भी बार-बार ‘कह रैदास खलास चमारा’ कहते हैं और जूता सीने का काम करते हुए इसी मानसिक गुलामी को तोड़ते हैं।
बाबू जगजीवन राम भी संत रैदास की भाँति स्वयं को हीन और अत्याचारी को श्रेष्ठ समझने वाली मानसिक गुलामी को तोड़ने का काम करते हैं। वे बार-बार सवाल करते हैं- ‘मानव के ईश्वरत्व को प्रतिष्ठित करने का जतन क्या भारतीय समाज में सम्भव है।’ उनका ध्येय ऐसे समाज की रचना है जिसमें मनुष्य के ईश्वरत्व को प्रतिष्ठित किया जा सके। इसीलिए वे कहते हैं- ‘भारतीय समाज ने हमको छोटा बनाकर रख दिया है, मैं किसी को छोटा नहीं बनाना चाहता।’ यह बहुत गहरे आत्मविश्वास से उपजा हुआ कथन है । हमें छोटा बनाया गया, पर हम किसी को छोटा नहीं बनाना चाहते, हमें घृणित समझा गया पर हम किसी को घृणित नहीं समझते, हमें उत्पीडि़त किया गया पर हम किसी को उत्पीडि़त नहीं करना चाहते, हमारा शोषण किया गया, पर हम किसी का शोषण नहीं करना चाहते। ऐसी अनेक बातें हैं जो इस आत्मविश्वास से निकलती हैं। बाबू जगजीवन राम की समझ है कि शोषण के क्रम को उलट कर शोषण मुक्त और समतामूलक समाज की रचना संभव नहीं है। शोषण और विषमता पर टिके समाज में कोई भी मुक्त नहीं है इसीलिए बाबू जी कहते हैं- ‘यदि मैं ब्राहमणवाद को मिटाने का जतन कर रहा हँू, तो मैं ब्राहमण को भी मुक्त करना चाहता हूँ, ठाकुर को भी मुक्त करना चाहता हूँ सिर्फ दलितों को नहीं।’ रेडिकल से रेडिकल दलित चिन्तन को एक न एक दिन बाबू जी की इस बात का मर्म समझना होगा कि दलित मुक्ति अकेले संभव नहीं है। वह तभी संभव है जब ब्राहमणवाद के जाल से स्वयं ब्राहमण की मुक्ति हो, क्षत्रिय की मुक्ति हो, सभी वर्णों की मुक्ति हो, पूरे समाज की मुक्ति हो। 
बाबा साहब डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर इस बात को ठीक से समझते थे हम शायद इसीलिए उन्होंने बाबू जगजीवन राम को ‘दूरदृष्टि सम्पन्न ऋषि नेता’ करार दिया था। 




महात्मा गाँधी ने बाबू जगजीवन राम को आग में तपा खरा सोना कहा था। स्वाधीनता आन्दोलन की आग में वे कई तरह से तपे थे। एक ओर वे औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ लड़ रहे थे तो दूसरी ओर स्वयं राष्ट्रीय आन्दोलन के भीतर मौजूद वर्णवादी सामन्ती वर्चस्व के खिलाफ भी एक मोर्चा खुला हुआ था। बाबू जगजीवन राम इससे भी दो चार हो रहे थे। भीतरी और बाहरी संघर्ष की इस आग में वे तपते और निखरते रहे।

एक बार  बनारस के बेनियाबाग में बाबू जगजीवन राम आये हुए थे। बी.एच.यू. के छात्रों की जमात भी पहुँची थी। छात्र शोर-गुल कर रहे थे। इस पर बाबू जगजीवन राम ने छात्रों से कहा- बुढ़ापा जवानी देख चुकी होती है पर जवानी को बुढ़ापा देखना बाकी होता है। इसलिए जवानों को बूढ़ों की बातें ध्यान से सुननी चाहिए। बाबूजी की मेघ-मन्द्र आवाज में निकले इस वाक्य का ऐसा असर हुआ कि छात्र शान्त होकर उन्हंे सुनने लगे। बाबू जगजीवन राम ने जीवन की एक सहज सामान्य सचाई को कुछ इस तरह कहा कि सबने उस सचाई का अनुभव किया। वे जिस सहजता के साथ अगली पीढ़ी से संवाद स्थापित करते हैं उसमें एक अनुभव परम्परा की अनुगँूज सुनाई पड़ती है। उसमें रैदासके जीवन और वाणी की छाप मौजूद है। 

जो सहिष्णु नहीं है वह धर्म नहीं है, जगजीवन राम ने यह रैदास से सीखा था। रैदास की वाणी को समझने के लिए हृदय में भक्ति का होना आवश्यक है। रैदास को अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए बार-बार परीक्षा देनी पड़ी पर इसकी कटुता का कोई चिन्ह रैदास के व्यक्तित्व में नहीं मिलता। मंगलकारी व्यक्तित्व अपने हिस्से के विष को आत्मसात कर लेते हैं और प्रेम के द्वारा संवेदनशीलता को विकसित करते हैं। इसीलिए रविदास को बुद्धि से नहीं हृदय से समझा जा सकता है। क्या इत्तफाक है कि रविदास की तरह जगजीवन राम को भी बार-बार परीक्षा देनी पड़ी है पर जगजीवन बाबू में भी सामाजिक दंश और अपमान से मिली कटुता का लेश मात्र नहीं है। उन्होंने वाराणसी में रैदास मन्दिर का निर्माण कराया। यह रैदास मन्दिर सिर्फ मन्दिर नहीं है। इसके पीछे एक सुचिन्तित दर्शन है। यह रैदास वाणी को जीवन में रोपने का यत्न है। 

भारतीय समाज में दलित वर्ग में जन्म लेना अन्तहीन अपमान और यातना का सिलसिला है जिससे समाज ही नहीं, स्वयं वह व्यक्ति भी अपने को हीन मान लेता है। जगजीवन राम उसे इस हीनताबोध से मुक्त करते हैं। वे बार-बार ऐसे समूहों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं - ’शरीर को ही गुलाम नहीं, किस तरह हमारे मस्तिष्क को गुलाम बना दिया गया है कि जो हमारे उपर अत्याचार करता है उसको हम अपने से बड़ा मान लेते 

सबसे बड़ा हमारे मस्तिष्क का ह्रास इसमें किया गया कि हमने अपने आपको छोटा समझ लिया। जो व्यक्ति खुद अपने आपको छोटा समझता रहेगा, वह कभी बड़ा नहीं बन सकता। इस चीज को याद कर लो।’ इस दिमागी गुलामी को बाबू जी रैदास के हवाले से समझाते हैं-

पराधीन को दीन नहीं पराधीन बे दीन। 
रविदास पराधीन को सबही समझे दीन। 

पराधीन का कोई दीन नहीं हो होता, कोई धर्म नहीं होता उसे सभी लोग हीन समझते हैं। इसलिए बाबू जगजीवन राम कहते हैं ’गुलाम का एक ही धर्म होता है कि वह गुलामी की बेडि़यों को तोड़कर फेंक दें।’ 

हमारे समाज में गुलामी की बेडि़यों के मूल में जाति प्रथा है इसे बाबू जगजीवन राम अच्छी तरह समझ रहे थे। वे सच्चे अर्थों में  जनतांत्रिक थे। उन्हें इस बात का पूरा भरोसा था कि जनतान्त्रिक प्रक्रिया ही जाति प्रथा को खत्म कर सकती है। अपने जनतान्त्रिक मूल्यों, विश्वासों को जीवन में बरतते हुए और जाति प्रथा के दंश को महसूस करते हुए बाबू जगजीवन राम इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि जाति प्रथा और जनतन्त्र साथ-साथ नहीं चल सकते। बाबू जगजीवन राम के लिए जनतन्त्र की हिमायत करना जाति प्रथा को निर्मूल करने की कोशिश का हिस्सा था। 

बाबू जगजीवन राम अच्छी तरह जानते थे कि जाति प्रथा के वरीयता क्रम को बदलने मात्र से जाति दंश खत्म नहीं होने वाला। बल्कि यह एक प्रकार के दंश की जगह दूसरे प्रकार के दंश को जन्म देना है। उनके लिए ब्राह्मणवाद के खात्मे का अर्थ केवल दलित मुक्ति नहीं थी। उनकी तत्वभेदी दृष्टि देख पा रही थी कि ब्राह्मणवाद की चक्की में दलित के साथ ब्राह्मण भी पिस रहा है, क्षत्रिय भी पिस रहा है, वैश्य भी पिस रहा है। इसलिए ब्राह्मणवाद का खात्मा दलितों को मुक्त करने के साथ ही ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को भी मुक्त करने वाला है । जगजीवन राम की दलित दृष्टि इस अर्थ में व्यापक और उदार थी कि वे सम्पूर्ण मनुष्यता की मुक्ति के बारे में सोचते थे। उनके लिए दलित मुक्ति का अर्थ जाति और वर्ण के बंधन में फँसी मनुष्यता की मुक्ति थी। 

अपने सुदीर्घ सामाजिक जीवन में बाबू जगजीवन राम  ने महसूस किया था कि हमारे देश में सोच का अकाल पड़ गया है। आज की राजनीति में व्याप्त संकीर्णता और वैचारिक शून्यता को देखते हुए बाबूजी का यह कथन कहीं ज्यादा अर्थवान लग रहा है। ध्यान से देखें तो जगजीवन राम का जीवन सोच के अकाल के दौर में उदात्त सोच को फिर से रोपने के लिए एक अजस्र प्रेरणा स्रोत है। 

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बाबू जगजीवन राम सच्चे अर्थों लोकतांत्रिक चेतना के व्यक्ति थे। लोकतांत्रिक चेतना को भारतीय समाज में विकसित करने में जिन लोगों का योगदान है, उनमें बाबू जगजीवन राम का नाम अगली कतार में आता है। बाबू जगजीवन राम की स्पष्ट राय थी कि भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था और लोकतंत्र साथ-साथ नहीं रह सकते। इसीलिए वे ताजिन्दगी वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करते रहे।    

बाबू जगजीवन राम का आरम्भिक जीवन स्वाधीनता संघर्ष में लगा रहा तो परवर्ती जीवन आधुनिक भारत के निर्माण की प्रक्रिया में। आजादी के बाद बने नये राजनीतिक ढ़ांचे के भीतर पुरानी सामाजिक संर्कीणताएं मौजूद थीं। बाबू जगजीवन राम की अन्तर्दृष्टि इस सच्चाई को भली प्रकार देख रही थी। राजनैतिक नारे और व्यक्तिगत आचरण का यह भेद बाबू जगजीवन राम को वैसे ही परेशान करता था, जैसे कथनी और करनी के बीच भेद संतो को परेशान करता था। बाबू जगजीवन राम आधुनिक राजनीतिक मनुष्य के इस दोहरेपन को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘हमारी इन आस्थाओं का हमारे दैनिक जीवन और आचरण से अधिक लगाव नहीं। हमारा मस्तिष्क जैसे अलग-अलग कोठों में बंटा है। एक ओर रूढि़गत संस्कार है, दूसरी ओर मानवतावादी विचार। एक ओर आदर्श, दूसरी ओर लूट खसोट की पाशविक वृत्ति। कहीं इनमें एक सूत्र नहीं, सम्बद्धता नहीं। व्यक्ति के रूप में भी हम टुकड़े-टुकड़े हैं, पूरे नहीं हैं। हमारे जनतांत्रिक विधान में जो कुछ प्रतिष्ठापित है, उसके लिए दृढ़ आधार, न हमारे दिलों में बन पाया है न दिमाग में। हमारा समाजवादी गणतंत्र और जातिवाद क्या साथ-साथ टिक सकते हैं? लेकिन हमारा विश्वास समाजवादी गणतंत्र में भी है और जातिवाद में भी। परिणाम यह होता है कि जाति पहले आती है, गणतंत्र पीछे खिसकता चलता है।’ 

इसलिए बाबू जगजीवन राम भारतीय चिन्तन परम्परा की बहुत गहरी समीक्षा करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारतीय समाज में आदर्श चाहें जितने बड़े और महान रहे हों व्यावहारिक धरातल पर उन आदर्शों को मूर्त रूप नहीं दिया जा सका है। बाबू जगजीवन राम इसे भारतीय समाज की आन्तरिक निर्बलता मानते हैं- ‘हमारे मनीषियों ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की उदार कल्पना की थी और आत्मवत् सर्व भूतेषु का महान आदर्श हमारे सामने रखा था। इस प्रकार उन मूल विचारों के क्षेत्र में, जिन्हें गणतन्त्र का तत्व कह सकते हैं, हम सदैव अग्रणी रहे हैं। व्यक्ति की पवित्रता और अद्वितीयता की मान्यता, जिसे फ्रांस और अमेरिकी क्रान्तियों से बल मिला,  हमारी प्राचीन विचारधारा की अन्यतम विभूतियां हैं। लेकिन इन चमत्कारिक और महान सत्यों को अपने जीवन का अंग बनाने में हमने कभी सफलता नहीं प्राप्त की। हमारा सामाजिक गठन, व्यवस्थाएं, विधियां, रीतियां, इन विचारों, आदर्शों और आस्थाओं से अनुप्राणित नहीं हुई। ऊंचे विचार शरीरविहीन आत्मा की तरह जैसे शून्य आकाश में भटकते रहे। सम्भवतः हमारी लम्बी दासता के मूल में हमारी यही आन्तरिक निर्बलता रही है।’ बाबू जी, इस आन्तरिक निर्बलता से सतत संघर्ष करते रहे। समाजवाद और लोकतन्त्र के विकास के लिए बराबरी का भाव आवश्यक है। बाबू जगजीवन राम देख रहे थे कि- ‘सामाजिक धरातल पर, बड़े और छोटे का भाव, जो समाजवाद तो क्या जनतंत्र का भी बैरी है, हर जगह दृष्टिगोचर है।’ यह छोटे बड़े का भाव समाज में उपर से नीचे तक व्याप्त है। एक तरह से यह मानसिक व्याधि बन गया है। मजे की बात है कि हमारे सामाजिक व्यवहार क्रिया कलाप इसी व्याधि से निर्धारित और संचालित होते हैं। ‘‘यह भाव हमारे हृदय के उन अदृश्य तथा गूढ़ स्थलों में है, जहाँ से हमारे व्यवहारों का निर्माण होता है। यह भाव मज्जागत संस्कार का रूप ले चुका है। एक ब्राह्मण या राजपूत एक बनिये के दुकान में दरवानी (चैकीदारी) करता हुआ भी, हृदय में यह अनुभव करता है कि वह ‘‘मालिक’’ से श्रेष्ठ है। एक ‘‘चमार’’ एक ‘‘डोम’’ को एक ‘‘मुसहर’’ को ‘‘निम्नतर’’ मानता है। एक ऐसी आश्चर्य जनक मानसिक दासता है जिसका उदाहरण संसार के किसी भी देश के इतिहास में नहीं मिलेगा। समता, भ्रातृत्व, मानव की पवित्रता, नागरिकता इत्यादि परिकल्पनाओं से इस भावना का मेल कहाँ है? जन्म के आधार पर, जाति के आधार पर सामाजिक सोपान बद्धता की जो व्यवस्था है, उसकी सम्भव है, कभी उपादेयता रही हो। लेकिन आज के संसार में इसकी, यह निःसंशय होकर कहा जा सकता है, कोई उपयोगिता नहीं है। मानव के निरन्तर तिरस्कार को, कथन और कार्य के इस दहकते वैषम्य, को इतने बड़े असत्य और इतनी बड़ी प्रवंचना को, जो समाज अपने अन्तरतम का सत्य मान,उसे संजो कर रखता है, उसकी मुक्ति की संभावना क्या हो सकती है? ऐसी मानसिक दासता पाश में बँधे गुलाम, आजाद कैसे हो सकते है? यह दासता जिस तरह बड़ों को गिराती है, उसी तरह तथाकथित छोटों को भी।’ 

जगजीवन राम इस भयावह सामाजिक सच्चाई का समाधान बुद्ध के चिन्तन और महात्मा गाँधी के प्रयोग में देखते हैं। क्योंकि बुद्ध और गाँधी  दोनो ने ही चिन्तन, वाणी, आचरण की पवित्रता और एकरूपता को बड़प्पन का आधार माना था। बाबू जगजीवन राम बहुत संजीदगी से यह सवाल करते हैं-‘कितने हैं,  जो इस कसौटी पर खरे उतरेंगे?’ आजादी के रूप में हुआ राजनीतिक परिवर्तन अपना वास्तविक जनतान्त्रिक रूप नही ग्रहण कर सकता जब तक कि सामाजिक परिवर्तन न हो। इसलिए बाबू जगजीवन राम सामाजिक क्रान्ति की अनिवार्यता महसूस कर रहे थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि ‘जातिवाद और जनतंत्र साथ-साथ नहीं चल सकते।’

वर्ण और जाति के विरुद्ध बाबू जगजीवन राम का संघर्ष अस्मितावादी राजनीति के दायरे में नहीं बल्कि राष्ट्रीय दायरे में था। अस्मितावादी राजनीति जाति और वर्ण को बनाये और बचाये रख कर ही हो सकती है। उनके लिए जनतन्त्र एक मूल्य व्यवस्था है। इस मूल्य व्यवस्था की अनिवार्य शर्त गैर बराबरी की समाप्ति है। जाति और वर्ण का ध्वंस जनतांत्रिक मूल्यों की रचना के लिए जरूरी है। यही सोच बाबू जगजीवन राम की विचार दृष्टि को व्यापक मानवीय आयाम देती है। इसीलिए वे सोच पाते हैं कि  अस्पृश्यता से सिर्फ अस्पृश्यों को ही नुकसान हुआ हो, ऐसी बात नहीं है इससे हमारे समाज को नुकसान हुआ है। इसलिए मैं मानता हूँ कि अस्पृश्यों की समस्या, केवल उनकी ही समस्या नहीं है। यह एक राष्ट्रीय-समस्या है और जब तक हम उसको राष्ट्रीय समस्या मानकर राष्ट्रीय स्तर पर सुलझाने का व्यापक प्रयत्न नहीं करेंगे, तब तक इसे सुलझाया नहीं जा सकेगा।’ अस्पृश्यता एक राष्ट्रीय समस्या है। अस्पृश्यों ने अपनी मुक्ति का संग्राम और मजबूत किया है और अकेले अपनी लड़ाई लड़ने की तैयारी की है।बाबू जगजीवन राम कहते हैं ‘‘ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि उनको अकेले न छोड़ा जाए।’’ इसमें पूरे समाज की भागीदारी जरूरी है क्योंकि यह मुक्ति की साधना है। ऐसी मुक्ति की साधना जिससे सारा भारतीय समाज मुक्त होगा, इस मुक्त भारतीय समाज में हीसच्चे लोकतंत्र की इमारत बन सकती है। बाबू जगजीवन राम ऐसे ही लोकतंत्र के कीमियागर थे। 

- साभार सदानंद शाही एप्रोफ़ेसर हिंदी विभाग बी एच यू वाराणसी .२२१००५ 
http://lokayatbanaras.blogspot.in/ से 

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