समाज की मुक्ति के साथ ही संभव है ‘दलित मुक्ति’-
जगजीवन राम
बाबू जगजीवन राम के पास भारतीय चिन्तन परम्परा का गहन अध्ययन और बोध था ।
वे इस तथ्य से वाकिफ थे कि भारतीय समाज के
आदर्श चाहें जितने बड़े और महान रहे हों व्यावहारिक धरातल पर उन आदर्शों को मूर्त रूप नहीं दिया जा सका है। वे इसे भारतीय समाज की आन्तरिक निर्बलता मानते हैं- ‘हमारे मनीषियों ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की उदार कल्पना की थी और आत्मवत् सर्व भूतेषु का महान आदर्श हमारे सामने रखा था। इस प्रकार उन मूल विचारों के क्षेत्र में, जिन्हें गणतन्त्र का तत्व कह सकते हैं, हम सदैव अग्रणी रहे हैं। व्यक्ति की पवित्रता और अद्वितीयता की मान्यता, जिसे फ्रांस और अमेरिकी क्रान्तियों से बल मिला, हमारी प्राचीन विचारधारा की अन्यतम विभूतियां हैं। लेकिन इन चमत्कारिक और महान सत्यों को अपने जीवन का अंग बनाने में हमने कभी सफलता नहीं प्राप्त की। हमारा सामाजिक गठन, व्यवस्थाएं, विधियां, रीतियां, इन विचारों, आदर्शों और आस्थाओं से अनुप्राणित नहीं हुई। ऊंचे विचार शरीरविहीन आत्मा की तरह जैसे शून्य आकाश में भटकते रहे। सम्भवतः हमारी लम्बी दासता के मूल में हमारी यही आन्तरिक निर्बलता रही है।’ वे भारतीय समाज की इस आन्तरिक निर्बलता से सतत संघर्ष करते रहे।
अस्मितावादी राजनीति के दौर में वर्ण और जाति के विरुद्ध बाबू जगजीवन राम के संघर्ष की चर्चा कम होती है क्योंकि उनका राजनीतिक चिंतन समावेशी है । ध्यान से देखें तो वे जातिऔर वर्ण के खात्मे के लिए संघर्ष कर रहे थे जबकि जाति और वर्ण का विरोध करते हुये भी उसे वैचारिक रूप से बनाए रखना अस्मितावादी राजनीति की सीमा है । जगजीवन राम का जीवन और चिंतन हमें इस सीमा का बोध कराता है।
बाबू जगजीवन राम यह जानते और मानते थे कि जाति प्रथा के वरीयता क्रम को बदलने मात्र से जाति दंश खत्म नहीं होने वाला। बल्कि यह एक प्रकार के दंश की जगह दूसरे प्रकार के दंश को जन्म देना है। उनके लिए ब्राह्मणवाद के खात्मे का अर्थ केवल दलित मुक्ति नहीं थी। उनकी तत्वभेदी दृष्टि देख पा रही थी कि ब्राह्मणवाद की चक्की में दलित के साथ ब्राह्मण भी पिस रहा है, क्षत्रिय भी पिस रहा है, वैश्य भी पिस रहा है। इसलिए ब्राह्मणवाद का खात्मा दलितों को मुक्त करने के साथ ही ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को भी मुक्त करने वाला है । जगजीवन राम की दलित दृष्टि इस अर्थ में व्यापक और उदार थी कि वे सम्पूर्ण मनुष्यता की मुक्ति के बारे में सोचते थे। शोषण और विषमता पर टिके समाज में कोई भी मुक्त नहीं है इसीलिए बाबू जी कहते हैं- ‘यदि मैं ब्राहमणवाद को मिटाने का जतन कर रहा हँू, तो मैं ब्राहमण को भी मुक्त करना चाहता हूँ, ठाकुर को भी मुक्त करना चाहता हूँ सिर्फ दलितों को नहीं।’ बाबू जगजीवन राम की इस बात को समझना होगा कि दलित मुक्ति अकेले संभव नहीं है। वह तभी संभव है जब ब्राहमणवाद के जाल से स्वयं ब्राहमण की मुक्ति हो, क्षत्रिय की मुक्ति हो, सभी वर्णों की मुक्ति हो, पूरे समाज की मुक्ति हो. उनके लिए दलित मुक्ति का अर्थ जाति और वर्ण के बंधन में फँसी मनुष्यता की मुक्ति थी।
राजनैतिक नारे और व्यक्तिगत आचरण का भेद बाबू जगजीवन राम को परेशान करता था। बाबू जगजीवन राम आधुनिक राजनीतिक मनुष्य के कथनी और करनी के बीच भेद के दोहरेपन को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘हमारी इन आस्थाओं का हमारे दैनिक जीवन और आचरण से अधिक लगाव नहीं। हमारा मस्तिष्क जैसे अलग-अलग कोठों में बंटा है। एक ओर रूढ़िगत संस्कार है, दूसरी ओर मानवतावादी विचार। एक ओर आदर्श, दूसरी ओर लूट खसोट की पाशविक वृत्ति। कहीं इनमें एक सूत्र नहीं, सम्बद्धता नहीं। व्यक्ति के रूप में भी हम टुकड़े-टुकड़े हैं, पूरे नहीं हैं। हमारे जनतांत्रिक विधान में जो कुछ प्रतिष्ठापित है, उसके लिए दृढ़ आधार, न हमारे दिलों में बन पाया है न दिमाग में। हमारा समाजवादी गणतंत्र और जातिवाद क्या साथ-साथ टिक सकते हैं? लेकिन हमारा विश्वास समाजवादी गणतंत्र में भी है और जातिवाद में भी। परिणाम यह होता है कि जाति पहले आती है, गणतंत्र पीछे खिसकता चलता है।’
वे जानते थे कि लोकतन्त्र के विकास के लिए बराबरी का भाव आवश्यक है। बाबू जगजीवन राम देख रहे थे कि छोटे बड़े का भाव समाज में उपर से नीचे तक व्याप्त है। एक तरह से यह मानसिक व्याधि बन गया है। मजे की बात है कि हमारे सामाजिक व्यवहार क्रिया कलाप इसी व्याधि से निर्धारित और संचालित होते हैं। ‘‘यह भाव हमारे हृदय के उन अदृश्य तथा गूढ़ स्थलों में है, जहाँ से हमारे व्यवहारों का निर्माण होता है। यह भाव मज्जागत संस्कार का रूप ले चुका है। एक ब्राह्मण या राजपूत एक बनिये के दुकान में दरवानी करता हुआ भी, हृदय में यह अनुभव करता है कि वह ‘‘मालिक’’ से श्रेष्ठ है। एक ‘‘चमार’’ एक ‘‘डोम’’ को एक ‘‘मुसहर’’ को ‘‘निम्नतर’’ मानता है। एक ऐसी आश्चर्य जनक मानसिक दासता है जिसका उदाहरण संसार के किसी भी देश के इतिहास में नहीं मिलेगा। समता, भ्रातृत्व, मानव की पवित्रता, नागरिकता इत्यादि परिकल्पनाओं से इस भावना का मेल कहाँ है? जन्म के आधार पर, जाति के आधार पर सामाजिक सोपान बद्धता की जो व्यवस्था है, उसकी सम्भव है, कभी उपादेयता रही हो। लेकिन आज के संसार में इसकी, यह निःसंशय होकर कहा जा सकता है, कोई उपयोगिता नहीं है। मानव के निरन्तर तिरस्कार को, कथन और कार्य के इस दहकते वैषम्य, को इतने बड़े असत्य और इतनी बड़ी प्रवंचना को, जो समाज अपने अन्तरतम का सत्य मान,उसे संजो कर रखता है, उसकी मुक्ति की संभावना क्या हो सकती है? ऐसी मानसिक दासता पाश में बँधे गुलाम, आजाद कैसे हो सकते
है? यह दासता जिस तरह बड़ों को गिराती है, उसी तरह तथाकथित छोटों को भी।’
वे गांधी की तरह मनुष्य के भीतर के ईश्वरत्व को उभरना चाहते थे । उनकी सबसे बड़ी चिंता थी कि क्या - - ‘मानव के ईश्वरत्व को प्रतिष्ठित करने का जतन क्या भारतीय समाज में सम्भव है।’ उनका ध्येय ऐसे समाज की रचना है जिसमें मनुष्य के ईश्वरत्व को प्रतिष्ठित किया जा सके। वे कहते हैं- ‘भारतीय समाज ने हमको छोटा बनाकर रख दिया है, मैं किसी को छोटा नहीं बनाना चाहता।’ यह बहुत गहरे आत्मविश्वास से उपजा हुआ कथन है । हमें छोटा बनाया गया, पर हम किसी को छोटा नहीं बनाना चाहते, हमें घृणित समझा गया पर हम किसी को घृणित नहीं समझते, हमें उत्पीड़ित किया गया पर हम किसी को उत्पीड़ित नहीं करना चाहते, हमारा शोषण किया गया, पर हम किसी का शोषण नहीं करना चाहते।‘
आज के दौर कि अस्मितावादी राजनीति जगजीवन राम से कम से कम यह आत्म विश्वास तो सीख ही सकती है । कहने कि जरूरत नहीं कि अस्मितावादी राजनीति जिस ठहराव से गुजर रही है और लगभग कदमताल कर रही है ,उसे तोड़ने का रास्ता इस आत्मविश्वास से होकर निकलता है ।
- साभार सदानन्द शाही जी (फेसबुक वाल से)
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