मनुष्य का होना तीन तलों पर है: शरीर-- सबसे अधिक मूर्त; स्व: की सत्ता-- सबसे अधिक अमूर्त; व मन-- दोनों के मध्य में।
मन अच्छा यंत्र तो है, परंतु अच्छा स्वामी नहीं...यदि तुम स्वामी हो तो मन अच्छा सेवक हो सकता है परंतु यदि सेवक स्वामी हो जाए और तुम पर मालकीयत करने लगे तो यह पागलपन होगा। तभी तो मैं कहता हूं कि पूरी मानवता "सामान्य पागल" है।
मन क्या है? यह सब उधार है, सब ओर से लिया उधार-- माता-पिता से, पड़ोसियों से, गुरुओं से, पंडित-पुरोहितों से, पुस्तकालयों से। इसकी भूख दुष्पूर है। यह सारे ज्ञान को निगल जाता है। वह ज्ञान भले ही विरोधाभासी हो, तनाव पैदा करता हो, एक या अनेक दुविधाएं पैदा करता हो। यदि जैसे-तैसे तुम अपना संतुलन बनाए रखो तो यह सामान्य पागलपन है।
पागलपन है लेकिन ऐसा, जो सब में है। जब तक तुम किसी होश वाले व्यक्ति के निकट नहीं आते, तुम अपने को पागल नहीं समझ सकोगे।
मनोवैज्ञानिक का कार्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति सामान्य मानवता की सीमा-रेखा से बाहर पड जाता है तो वह उसे वापिस ला सके। यह इतना सरल नहीं है। इसे सालों लग जाते हैं और कुछ धनी व्यक्ति ही इसका लाभ ले सकते हैं। फिर भी यह पक्का नहीं कि सफलता मिले ही, क्योंकि जो व्यक्ति उसका इलाज कर रहा है वह स्वयं भी अपने पागलपन का दमन कर रहा है।
मन:चिकित्सा से मानवता का कुछ भला नहीं हुआ है, हो ही नहीं सकता। अ-मन होने की अवस्था का पश्चिम को कोई ज्ञान नहीं है, और इसी अवस्था में तुम्हें बोध होता है कि मन के पार कैसे जाया जाए…
क्योंकि जब मन का शोरगुल समा प्त होता है और सब शांत हो जाता है तभी अंतस की आवाज़ सुनाई देती है
तुम्हें पहली बार यह बोध होता है" मैं यहां हूं। मैं उस भीड़ में नहीं था, मैं सदा यहीं था।"
मन के पार होने के इस बोध के छोटे से क्षण ने तुम्हें यह गुर दे दिया। अब मन कभी भी तुम्हारा स्वामी नहीं हो सकता। और जब वह तुम्हारा स्वामी नहीं रहेगा तो वह तुम्हें पागल नहीं कर सकेगा। अब मन जो भी चाहता है उसे संग्रहीत नहीं कर सकता।
एक बार तुम्हारा स्व अपनी सत्ता का बोध करवा देता है, तो मन एकदम बहुत विनम्र हो जाता है। यह एकदम शांत हो जाता है और सभी शोरगुल छोड़ देता है। तथा स्व-सत्ता से युक्त व्यक्ति अपने तंत्र की भांति अपने मन को नियंत्रित करना जानता है। परंतु यदि तंत्र तुम पर हावी हो जाए तो यह बहुत कुरूप होगा।
मनुष्य को स्मरण रहना चाहिए कि वह अपने शरीर व मन का स्वामी है। तो निश्चित ही वह दोनों से ऊपर होगा। और मैं अपने पूरे अधिकार से कहता हूं कि ऐसा है। तुम मन:चिकित्सा व अन्य चिकित्साओं के प्रति खेलपूर्ण रहो; वे केवल खेल हैं, तुम्हें अच्छी लगती हैं, कोई हर्ज़ नहीं। वे फुटबाल से बेहतर हैं लेकिन खेल से अधिक कुछ नहीं। वे तुम्हें नया जीवन देने वाली नहीं, कोई प्रामाणिक प्रतिभा देने वाली नहीं, न ही ऐसी कोई स्पष्टता जो बिना किसी दुविधा के हर समस्या का हल दे सके।
अब मन:चिकित्सा के दिन लद गए, ज्यों-ज्यों ध्यान फैलेगा, मन:चिकित्सा जाने ही वाली है। इसका कोई लाभ नहीं है और इससे कहीं कोई भला भी नहीं हुआ।
ध्यान तुम्हें तुम्हारी सत्ता तक ले जाता है और यह अतिक्रमण के लिए सीधा मार्ग है
और जब स्वामी वहां है तो सेवक हार मान लेता है। और उसी हार में स्वास्थ्य है क्योंकि स्वामी अपने स्थान पर है और सेवक अपने स्थान पर; लयबद्धता लौट आई और लयबद्ध होना ही स्वास्थ्य है।
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