श्री गंगालहरी - Kashi Patrika

श्री गंगालहरी



श्री गंगालहरी 

समुत्पत्तिः पधारमणपदपधामलनखा- 
न्निवासः कन्दर्पप्रतिभटजटाजूटभवने।
अथाऽयं  व्यासङ्गो हतपतितनिस्तारणविधौ 
न कस्मादुत्कर्षस्तव जननि जागर्तु जगति॥ २१॥

नागेभ्यो यांतीनां कथय तटिनीनां कतमया
पुराणां संहर्तुः सुरधुनि कपर्दोऽधिरुरुहे ।
कया वा श्रीभर्तुः पदकमलमक्षाळी सलिलै-
स्तुलालेशो यस्याः तव जननि दीयेत कविभिः॥ २२॥


आज हम 'श्री गंगालहरी' के दो और श्लोकों को प्रकाशित  कर रहें हैं।

-  संपादक की कलम से 

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