कर्नाटक चुनाव परिणाम के बाद भी सियासी "ड्रामे" का पटापेक्ष होता फिलहाल नहीँ दिख रहा है। गद्दी के लिए जोड़-तोड़ की रस्साकशी जारी है और सरकार बनाना टेढ़ी खीर मालूम पड़ रहा है। हालांकि, इन सबके बीच येदियुरप्पा शपथ ग्रहण की ओर है। राज्यपाल एवं कोर्ट की शरण में पहुंचे कांग्रेस और जेडीएस के हाथ कुछ खास तो नहीँ लगा, किंतु सत्ता का यह खेल अभी बहुमत साबित करने तक जारी रहने वाला है।
चुनाव प्रचार के साथ शुरू हुआ आरोप-प्रत्यारोप का दौर अब भी चल रहा है। आदर्शों को ताक पर रखकर तरह-तरह के तर्क गढ़े जा रहे हैं, सांविधानिक विकल्पों का विश्लेषण हो रहा है, बोम्मई मामले की व्याख्याएं हो रही हैं। क्या होना चाहिए, इसका हर किसी के पास अपना तर्क है। दोनों तर्कों के पक्ष में तमाम ताजे और पुराने उदाहरण मौजूद हैं। राज्यपाल के फैसले को कठघरे में खड़ा कर दिया गया है!
बात नई नहीं रह गई है। चुनाव-दर-चुनाव अब देश में राजनीति और राजनीतिकों के मूल स्वाभाव में बदलाव दर्ज हो रहा है। यह सब प्रचार से ही शुरू हो जाता है। खासकर जब भी नतीजे में त्रिशंकु विधानसभा मिलती है राजनीति अक्सर अपने सबसे निचले स्तर पर आ जाती है। नतीजे आने के तुरंत बाद यही कर्नाटक में शुरू हो चुका है। कर्नाटक के इस बार के चुनाव नतीजे बहुत चौंकाने वाले नहीं हैं। वर्ष 1985 के बाद से वहां किसी भी राजनीतिक दल की लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी नहीं हुई। इस बार भी जनता ने सत्ताधारी कांग्रेस के हक में मतदान नहीं किया, लेकिन इस बार किसी एक पार्टी के पक्ष में जनता ने पूरी तरह विश्वास नहीं जताया है। नतीजतन बुधवार को सुबह से ही कुछ विधायकों के गायब होने की बात कही जाने लगी थी।
हालांकि इसके पीछे किसी पर विधायकों को गायब करने का आरोप नहीं था, बल्कि यह बताया जा रहा था कि कुछ विधायकों से पार्टी नेतृत्व का संपर्क पूरी तरह खो चुका है। इसका एक दूसरा अर्थ यह भी था कि राज्य में विधायकों की खरीद-फरोख्त शुरू हो चुकी है। दोपहर होते-होते जनता दल-सेकुलर के नेता कुमारस्वामी का यह बयान भी आ गया कि उनके एक-एक विधायक को अपना पाला बदलने के लिए सौ करोड़ रुपये का लालच दिया जा रहा है। इसी के साथ रिजॉर्ट की राजनीति भी शुरू हो गई है।
इन सबको लेकर विशेषज्ञों से लेकर सियासतदारों तक के अपने-अपने तर्क हैं। और राजनीति के गिरते स्तर की ओर किसी का ध्यान नहीँ जा रहा है। कुल मिलाकर, "हमाम में सब, एक से दिख रहे हैं।"
चुनाव प्रचार के साथ शुरू हुआ आरोप-प्रत्यारोप का दौर अब भी चल रहा है। आदर्शों को ताक पर रखकर तरह-तरह के तर्क गढ़े जा रहे हैं, सांविधानिक विकल्पों का विश्लेषण हो रहा है, बोम्मई मामले की व्याख्याएं हो रही हैं। क्या होना चाहिए, इसका हर किसी के पास अपना तर्क है। दोनों तर्कों के पक्ष में तमाम ताजे और पुराने उदाहरण मौजूद हैं। राज्यपाल के फैसले को कठघरे में खड़ा कर दिया गया है!
बात नई नहीं रह गई है। चुनाव-दर-चुनाव अब देश में राजनीति और राजनीतिकों के मूल स्वाभाव में बदलाव दर्ज हो रहा है। यह सब प्रचार से ही शुरू हो जाता है। खासकर जब भी नतीजे में त्रिशंकु विधानसभा मिलती है राजनीति अक्सर अपने सबसे निचले स्तर पर आ जाती है। नतीजे आने के तुरंत बाद यही कर्नाटक में शुरू हो चुका है। कर्नाटक के इस बार के चुनाव नतीजे बहुत चौंकाने वाले नहीं हैं। वर्ष 1985 के बाद से वहां किसी भी राजनीतिक दल की लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी नहीं हुई। इस बार भी जनता ने सत्ताधारी कांग्रेस के हक में मतदान नहीं किया, लेकिन इस बार किसी एक पार्टी के पक्ष में जनता ने पूरी तरह विश्वास नहीं जताया है। नतीजतन बुधवार को सुबह से ही कुछ विधायकों के गायब होने की बात कही जाने लगी थी।
हालांकि इसके पीछे किसी पर विधायकों को गायब करने का आरोप नहीं था, बल्कि यह बताया जा रहा था कि कुछ विधायकों से पार्टी नेतृत्व का संपर्क पूरी तरह खो चुका है। इसका एक दूसरा अर्थ यह भी था कि राज्य में विधायकों की खरीद-फरोख्त शुरू हो चुकी है। दोपहर होते-होते जनता दल-सेकुलर के नेता कुमारस्वामी का यह बयान भी आ गया कि उनके एक-एक विधायक को अपना पाला बदलने के लिए सौ करोड़ रुपये का लालच दिया जा रहा है। इसी के साथ रिजॉर्ट की राजनीति भी शुरू हो गई है।
इन सबको लेकर विशेषज्ञों से लेकर सियासतदारों तक के अपने-अपने तर्क हैं। और राजनीति के गिरते स्तर की ओर किसी का ध्यान नहीँ जा रहा है। कुल मिलाकर, "हमाम में सब, एक से दिख रहे हैं।"
- संपादकीय
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