बारहवीं के परीक्षा परिणाम आते ही एक बार फिर से टॉपर्स की खोज, उनके साक्षात्कार का सिलसिला चल पड़ा। कुछ हद तक उनकी कामयाबी सराहना की अधिकारी भी है, लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या सिर्फ नंबर ही सबकुछ है! बात यह भी है कि सफल परीक्षार्थियों का मनोबल पहले से ही बढ़ा रहता है, तो इस हिसाब से साथ और सहानुभूति की जरूरत तो विफल परीक्षार्थियों को ज्यादा होगी। खैर, इस बात में उलझे बिना यह सोचनीय विषय है कि क्या परीक्षा में ज्यादा प्रतिशत आ जाने मात्र से रोजगार मिल जाता है या जीवन की अन्य परीक्षाओं का सामना ऐसे लोग आसानी से कर लेते हैं? इन सवालों का उत्तर तलाशे बिना हम अपने बच्चों को स्कोरर बनाने में जुटे हुए हैं।
फिल्म “तारे जमीं पर” के जरिए अंकों के खेल से बाहर निकलने की बात आमिर खान ने समझाने की खूबसूरत कोशिश की, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में अंकों का गणित समय के साथ और जटिल होता जा रहा है। वैसे भी, अंक कम आने पर अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीँ मिलता और न ही मनपसंद विषय के चयन का मौका। ऐसे में, अभिभावक भी ज्यादा अंक लाने पर जोड़ देते हैं। बच्चों को रेस में दौराने की होड़ में माता-पिता भी जैसे माथापच्ची कर रहे हैं। इसका खुलासा एक ताजा अध्ययन में हुआ है कि बच्चों को होमवर्क कराने में भारतीय अभिभावक सबसे ज्यादा समय देते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय एक चैरिटेबल संगठन वर्की फाउंडेशन की ओर से जारी एक स्टडी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पैरंट्स हर हफ्ते औसतन 12 घंटा बच्चों का होमवर्क कराने में लगाते हैं। शिक्षा का यह जोर सिर्फ अंकों तक सिमटता जा रहा है, जिसमें नैतिक शिक्षा, बड़ों के साथ सद्व्यवहार जैसी बातोँ को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। ऐसे में, सिर्फ कुछ सीमित बच्चे प्रशंसा पाते हैं, जबकि एक बड़ा तबका उपेक्षित महसूस करता है। यह तो और भी चिंता का विषय है कि जहां कम अंकों से उत्तीर्ण होने वाला उपेक्षित है, वहां अनुतीर्ण होने वालों की मानसिक स्थिति क्या होती होगी। फलस्वरूप बच्चों में तनाव बढ़ रहा है।
अंकों की अंधाधुंध दौड़ में भागने से पहले एक और बात गौर करने की है कि टॉप के अंक बेहतर रोजगार की गारंटी नहीं देते। भारत में युवाओं की संख्या बड़ी है और रोजगार के प्रश्न पर हर सियासतदार सिर्फ वादों की पोटली पकड़ा रहा है। केंद्र सरकार विकास की बात कर उपलब्धियां गिना रही है, किंतु रोजगार का यक्ष प्रश्न यथाचित बना हुआ है।
कुल मिलाकर, अच्छे अंक सराहना का अधिकारी है, लेकिन जरूरी नहीं की हर बच्चा एक समान हो और यह भी अटल सत्य नहीं है कि कम अंक लाने वाले जीवन में असफल रह जाएंगे।
-संपादकीय
फिल्म “तारे जमीं पर” के जरिए अंकों के खेल से बाहर निकलने की बात आमिर खान ने समझाने की खूबसूरत कोशिश की, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में अंकों का गणित समय के साथ और जटिल होता जा रहा है। वैसे भी, अंक कम आने पर अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीँ मिलता और न ही मनपसंद विषय के चयन का मौका। ऐसे में, अभिभावक भी ज्यादा अंक लाने पर जोड़ देते हैं। बच्चों को रेस में दौराने की होड़ में माता-पिता भी जैसे माथापच्ची कर रहे हैं। इसका खुलासा एक ताजा अध्ययन में हुआ है कि बच्चों को होमवर्क कराने में भारतीय अभिभावक सबसे ज्यादा समय देते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय एक चैरिटेबल संगठन वर्की फाउंडेशन की ओर से जारी एक स्टडी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पैरंट्स हर हफ्ते औसतन 12 घंटा बच्चों का होमवर्क कराने में लगाते हैं। शिक्षा का यह जोर सिर्फ अंकों तक सिमटता जा रहा है, जिसमें नैतिक शिक्षा, बड़ों के साथ सद्व्यवहार जैसी बातोँ को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। ऐसे में, सिर्फ कुछ सीमित बच्चे प्रशंसा पाते हैं, जबकि एक बड़ा तबका उपेक्षित महसूस करता है। यह तो और भी चिंता का विषय है कि जहां कम अंकों से उत्तीर्ण होने वाला उपेक्षित है, वहां अनुतीर्ण होने वालों की मानसिक स्थिति क्या होती होगी। फलस्वरूप बच्चों में तनाव बढ़ रहा है।
अंकों की अंधाधुंध दौड़ में भागने से पहले एक और बात गौर करने की है कि टॉप के अंक बेहतर रोजगार की गारंटी नहीं देते। भारत में युवाओं की संख्या बड़ी है और रोजगार के प्रश्न पर हर सियासतदार सिर्फ वादों की पोटली पकड़ा रहा है। केंद्र सरकार विकास की बात कर उपलब्धियां गिना रही है, किंतु रोजगार का यक्ष प्रश्न यथाचित बना हुआ है।
कुल मिलाकर, अच्छे अंक सराहना का अधिकारी है, लेकिन जरूरी नहीं की हर बच्चा एक समान हो और यह भी अटल सत्य नहीं है कि कम अंक लाने वाले जीवन में असफल रह जाएंगे।
-संपादकीय


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