दुष्यंत कुमार "साये में धूप"
चांदनी छत पे चल रही होगी,
अब अकेली टहल रही होगी।
फिर मेरा जिक्र आ गया होगा,
बर्फ-सी वो पिघल रही होगी।
कल का सपना बहुत सुहाना था,
ये उदासी न कल रही होगी।
सोचता हूँ कि बंद कमरे में,
एक शमअ-सी जल रही होगी।
तेरे गहनों सी खनखनाती थी,
बाजरे की फसल रही होगी।
जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया,
उन में मेरी गजल रही होगी।
चांदनी छत पे चल रही होगी,
अब अकेली टहल रही होगी।
फिर मेरा जिक्र आ गया होगा,
बर्फ-सी वो पिघल रही होगी।
कल का सपना बहुत सुहाना था,
ये उदासी न कल रही होगी।
सोचता हूँ कि बंद कमरे में,
एक शमअ-सी जल रही होगी।
तेरे गहनों सी खनखनाती थी,
बाजरे की फसल रही होगी।
जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया,
उन में मेरी गजल रही होगी।
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