“मटरगश्ती” में बीते सप्ताह हमने उत्तराखंड के चार धामों में “यमुनोत्री” की चर्चा की थी। चार धाम यात्रा का दूसरा पवित्र पड़ाव “गंगोत्री” है।
यहीं शिव की जटाओं में आईं गंगा
कहा जाता है कि "गंगोत्री" ही वह स्थान है, जहां शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में धारण किया था। इससे इस स्थान का धार्मिक महत्व है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा सागर ने अश्वगमेध यज्ञ किया, तो यज्ञ का घोड़ा जहां-जहां गया, उनके 60,000 बेटों ने उन जगहों को अपने आधिपत्य में ले लिया। इससे देवताओं के राजा इंद्र चिंतित हो गए और उन्होंने इस घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सागर के बेटे घोड़े की खोज में आश्रम पहुंचे। मुनिवर का अनादर करते हुए वे घोड़े को छुड़ा ले गए। इससे दुखी होकर कपिल मुनि ने राजा सागर के सभी बेटों को शाप दे दिया, जिससे वे राख में बदल गए। जब राजा को इसका पता चला, तब उन्होंने मुनिवर से क्षमा याचना करने लगे। मुनिवर द्रवित हो गए और उन्होंने राजा सागर को कहा कि अगर स्वर्ग में प्रवाहित होने वाली नदी "गंगा" पृथ्वी पर आ जाए और उसके पावन जल का स्पर्श इस राख से हो जाए, तो उनके पुत्र जीवित हो जाएंगे। हालांकि, राजा सागर गंगा को पृथ्वी पर लाने में विफल रहे। बाद में राजा सागर के पुत्र भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त की, लेकिन गंगा का प्रभाव इतना तेज था कि भागीरथ ने भगवान शिव की तपस्या कर उन्हें गंगा का वेग संभालने का अनुरोध किया और शिव इसी स्थान पर अपनी जटाएं खोल कर बैठ गए। इसके बाद गंगा उनकी जटाओं में समा गईं।
गोमुख है 18 किमी दूर
“गंगोत्री” वह स्थान है, जहां सर्वप्रथम गंगा का अवतरण हुआ और भगवान भोलेनाथ ने उन्हें यहीं अपनी जटाओं में धारण किया, मगर हिमानी के क्रमश: पिघलते रहने के कारण गंगा का वर्तमान उद्गम स्रोत यहां से तकरीबन 19 किमी दूर, समुद्रतल से करीब 3,892 मीटर की ऊंचाई पर स्थित “गौमुख” माना जाता है। यह गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना तथा भागीरथी नदी का उद्गम स्थल है।
मोक्ष और "गंगोत्री"
कहते हैं कि यहां के बर्फिले पानी में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। यहां प्रचलित कथाओं के मुताबिक पांडवों ने महाभारत के युद्ध में मारे गए अपने परिजनों की आत्मिक शांति के निमित इसी स्थान पर आकर एक महान देव यज्ञ करवाया था। "गंगोत्री" को मोक्ष से जोड़कर देखा जाता है। कहा जाता है कि मनुष्य जीवन त्यागने के बाद अगर उसकी अस्थियों को यहां विसर्जित कर दिया जाए, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मंदिर निर्माण की कथा
प्राचीन काल में इस स्थान में कोई मंदिर नहीं था। केवल भागीरथ शिला के पास चौतरा था, जिसमें देवीमूर्ति को यात्राकाल के 3-4 मास दर्शनार्थ रखा जाता था। इस जगह पर शंकराचार्य ने गंगा देवी की एक मूर्ति स्थापित की थी। पवित्र शिलाखंड के पास ही 18वीं शताब्दी में गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा द्वारा “गंगोत्री मंदिर” का निर्माण किया गया। मंदिर में प्रबंध के लिए सेनापति थापा ने मुखबा गंगोत्री गांवों से पंडों की भी नियुक्त की, जबकि इसके पहले टकनौर के राजपूत ही “गंगोत्री” में पूजा-पाठ का काम करते थे। इतिहासकारों के मुताबिक वर्तमान गंगोत्री मंदिर का पुनःनिर्माण जयपुर के राजा माधो सिंह ने बींसवी शताब्दी में करवाया था। गंगोत्री मंदिर सफेद ग्रेनाइट से बना है, जिसमें शिवलिंग के रूप में एक नैसर्गिक चट्टान भागीरथी नदी में जलमग्न है।
भैरवनाथ, भगीरथ का तपस्थल
इसके निकट भैरवनाथ का एक मंदिर है। इसे भगीरथ का तपस्थल भी कहते हैं। जिस शिला पर बैठकर उन्होंने तपस्या की थी, वह भगीरथ शिला कहलाती है। उस शिला पर लोग पिंडदान करते हैं। गंगोत्री में सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा आदि देवताओं के नाम पर अनेक कुंड हैं।
रुद्रशिला भी महत्वपूर्ण
भगीरथ शिला से कुछ दूर पर रुद्रशिला है। जहां कहा जाता है कि शिव ने गंगा को अपने मस्तक पर धारण किया था। इसके निकट ही केदारगंगा, गंगा में मिलती है। इससे आधी मील दूर पर वह पाषाण के बीच से होती हुई 30-35 फुट नीचे प्रपात के रूप में गिरती है। यह प्रताप नाला गौरीकुंड कहलाता है। इसके बीच में एक शिवलिंग है, जिसके ऊपर प्रपात के बीच का जल गिरता रहता है।
बाल शिव का प्राचीन मंदिर
गंगोत्री से पहले यह बाल शिव का प्राचीन मंदिर है। इसे बाल कंडार मंदिर के रूप में भी जाना जाता है। गंगोत्री धाम का प्रथम पूजा स्थल यही है। गंगा मां के दर्शन से पहले बाल शिव के दर्शन जरूरी माना जाता है। इसके बिना यात्रा अधूरी होती है। यह मंदिर 1442 सदी का बना है।
छह माह बंद रहता है पट
छह माह के शीतकाल के दौरान गंगोत्री मंदिर के पट बंद हो जाते हैं, फिर ग्रीष्म काल में खुलते हैं। अक्षय तृतीया के दिन "मुखवा गांव" (मां गंगा का मायका) से पूरी भव्यता के साथ मां गंगा की डोली विभिन्न पड़ावों से होकर गंगोत्री पहुंचती है। इस मंदिर के कपाट खुलने के इस अनोखे दृश्य को देखने के लिए देश-विदेश से बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां पहुंच जाते हैं। लगभग मई से अक्टूबर तक मंदिर दर्शनार्थियों के लिए खुला रहता है।
पहुंचने की राह
इस धाम के लिए ऋषिकेश से उत्तरकाशी, भटवाड़ी से गंगनानी, हर्षिल, मुखवा, धराली, भरौघाटी होते हुए वाहन से पहुंचा जा सकता है। यात्रामार्ग में चिन्याडीसौड, बडेथी, धरासु, डुंडा, नाकुरी, मातली, ज्ञानसु, उत्तरकाशी, जोशीयाडा, गंगोरी, नेताला, भडवाडी, सुक्की टॉप गंगनानी, हर्षिल, धराली गंगोत्री आदि स्थानों पर रहने-ठहरने की व्यवस्था है। निकटम हवाई अड्डा देहरादून स्थित जौलीग्रांट निकटतम हवाई अड्डा है, जिससे गंगोत्री की दूरी 226 किमी है।
- सोनी सिंह
यहीं शिव की जटाओं में आईं गंगा
कहा जाता है कि "गंगोत्री" ही वह स्थान है, जहां शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में धारण किया था। इससे इस स्थान का धार्मिक महत्व है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा सागर ने अश्वगमेध यज्ञ किया, तो यज्ञ का घोड़ा जहां-जहां गया, उनके 60,000 बेटों ने उन जगहों को अपने आधिपत्य में ले लिया। इससे देवताओं के राजा इंद्र चिंतित हो गए और उन्होंने इस घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सागर के बेटे घोड़े की खोज में आश्रम पहुंचे। मुनिवर का अनादर करते हुए वे घोड़े को छुड़ा ले गए। इससे दुखी होकर कपिल मुनि ने राजा सागर के सभी बेटों को शाप दे दिया, जिससे वे राख में बदल गए। जब राजा को इसका पता चला, तब उन्होंने मुनिवर से क्षमा याचना करने लगे। मुनिवर द्रवित हो गए और उन्होंने राजा सागर को कहा कि अगर स्वर्ग में प्रवाहित होने वाली नदी "गंगा" पृथ्वी पर आ जाए और उसके पावन जल का स्पर्श इस राख से हो जाए, तो उनके पुत्र जीवित हो जाएंगे। हालांकि, राजा सागर गंगा को पृथ्वी पर लाने में विफल रहे। बाद में राजा सागर के पुत्र भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफलता प्राप्त की, लेकिन गंगा का प्रभाव इतना तेज था कि भागीरथ ने भगवान शिव की तपस्या कर उन्हें गंगा का वेग संभालने का अनुरोध किया और शिव इसी स्थान पर अपनी जटाएं खोल कर बैठ गए। इसके बाद गंगा उनकी जटाओं में समा गईं।
गोमुख है 18 किमी दूर
“गंगोत्री” वह स्थान है, जहां सर्वप्रथम गंगा का अवतरण हुआ और भगवान भोलेनाथ ने उन्हें यहीं अपनी जटाओं में धारण किया, मगर हिमानी के क्रमश: पिघलते रहने के कारण गंगा का वर्तमान उद्गम स्रोत यहां से तकरीबन 19 किमी दूर, समुद्रतल से करीब 3,892 मीटर की ऊंचाई पर स्थित “गौमुख” माना जाता है। यह गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना तथा भागीरथी नदी का उद्गम स्थल है।
मोक्ष और "गंगोत्री"
कहते हैं कि यहां के बर्फिले पानी में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। यहां प्रचलित कथाओं के मुताबिक पांडवों ने महाभारत के युद्ध में मारे गए अपने परिजनों की आत्मिक शांति के निमित इसी स्थान पर आकर एक महान देव यज्ञ करवाया था। "गंगोत्री" को मोक्ष से जोड़कर देखा जाता है। कहा जाता है कि मनुष्य जीवन त्यागने के बाद अगर उसकी अस्थियों को यहां विसर्जित कर दिया जाए, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मंदिर निर्माण की कथा
प्राचीन काल में इस स्थान में कोई मंदिर नहीं था। केवल भागीरथ शिला के पास चौतरा था, जिसमें देवीमूर्ति को यात्राकाल के 3-4 मास दर्शनार्थ रखा जाता था। इस जगह पर शंकराचार्य ने गंगा देवी की एक मूर्ति स्थापित की थी। पवित्र शिलाखंड के पास ही 18वीं शताब्दी में गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा द्वारा “गंगोत्री मंदिर” का निर्माण किया गया। मंदिर में प्रबंध के लिए सेनापति थापा ने मुखबा गंगोत्री गांवों से पंडों की भी नियुक्त की, जबकि इसके पहले टकनौर के राजपूत ही “गंगोत्री” में पूजा-पाठ का काम करते थे। इतिहासकारों के मुताबिक वर्तमान गंगोत्री मंदिर का पुनःनिर्माण जयपुर के राजा माधो सिंह ने बींसवी शताब्दी में करवाया था। गंगोत्री मंदिर सफेद ग्रेनाइट से बना है, जिसमें शिवलिंग के रूप में एक नैसर्गिक चट्टान भागीरथी नदी में जलमग्न है।
भैरवनाथ, भगीरथ का तपस्थल
इसके निकट भैरवनाथ का एक मंदिर है। इसे भगीरथ का तपस्थल भी कहते हैं। जिस शिला पर बैठकर उन्होंने तपस्या की थी, वह भगीरथ शिला कहलाती है। उस शिला पर लोग पिंडदान करते हैं। गंगोत्री में सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा आदि देवताओं के नाम पर अनेक कुंड हैं।
रुद्रशिला भी महत्वपूर्ण
भगीरथ शिला से कुछ दूर पर रुद्रशिला है। जहां कहा जाता है कि शिव ने गंगा को अपने मस्तक पर धारण किया था। इसके निकट ही केदारगंगा, गंगा में मिलती है। इससे आधी मील दूर पर वह पाषाण के बीच से होती हुई 30-35 फुट नीचे प्रपात के रूप में गिरती है। यह प्रताप नाला गौरीकुंड कहलाता है। इसके बीच में एक शिवलिंग है, जिसके ऊपर प्रपात के बीच का जल गिरता रहता है।
बाल शिव का प्राचीन मंदिर
गंगोत्री से पहले यह बाल शिव का प्राचीन मंदिर है। इसे बाल कंडार मंदिर के रूप में भी जाना जाता है। गंगोत्री धाम का प्रथम पूजा स्थल यही है। गंगा मां के दर्शन से पहले बाल शिव के दर्शन जरूरी माना जाता है। इसके बिना यात्रा अधूरी होती है। यह मंदिर 1442 सदी का बना है।
छह माह बंद रहता है पट
छह माह के शीतकाल के दौरान गंगोत्री मंदिर के पट बंद हो जाते हैं, फिर ग्रीष्म काल में खुलते हैं। अक्षय तृतीया के दिन "मुखवा गांव" (मां गंगा का मायका) से पूरी भव्यता के साथ मां गंगा की डोली विभिन्न पड़ावों से होकर गंगोत्री पहुंचती है। इस मंदिर के कपाट खुलने के इस अनोखे दृश्य को देखने के लिए देश-विदेश से बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां पहुंच जाते हैं। लगभग मई से अक्टूबर तक मंदिर दर्शनार्थियों के लिए खुला रहता है।
पहुंचने की राह
इस धाम के लिए ऋषिकेश से उत्तरकाशी, भटवाड़ी से गंगनानी, हर्षिल, मुखवा, धराली, भरौघाटी होते हुए वाहन से पहुंचा जा सकता है। यात्रामार्ग में चिन्याडीसौड, बडेथी, धरासु, डुंडा, नाकुरी, मातली, ज्ञानसु, उत्तरकाशी, जोशीयाडा, गंगोरी, नेताला, भडवाडी, सुक्की टॉप गंगनानी, हर्षिल, धराली गंगोत्री आदि स्थानों पर रहने-ठहरने की व्यवस्था है। निकटम हवाई अड्डा देहरादून स्थित जौलीग्रांट निकटतम हवाई अड्डा है, जिससे गंगोत्री की दूरी 226 किमी है।
- सोनी सिंह
उत्तराखंड की संस्कृति और परंपरा को अच्छे से संजोया है। हमारा लेख भी देखें गंगोत्री धाम के बारें में
ReplyDelete