बेबाक हस्तक्षेप - Kashi Patrika

बेबाक हस्तक्षेप

कर्नाटक चुनाव परिणाम अब बस आने को है। मतदाता और प्रत्याशियों की बढ़ी बेसब्री के बीच संवेदनशील लोग फिलहाल चैन की सांस ले रहे हैं कि जुबानी जुमलेबाजी का आखिर अंत हुआ। चुनाव के दौरान जो शब्द वाण चलाए गए उससे लोकतंत्र कितना आहत हुआ, इसकी ओर से बेफिकर हो प्रचार धुंआधार चलता रहा। हां, कुछ संवेदनशील लोगों की नजरोँ से देखे तो चुनाव-दर-चुनाव हमारी सियासत और सियासतदार पतन की सीढ़ियां उतर रहे हैं! जहां जिला, राज्य, देश के मुख्य मुद्दों-समस्याओं की अनदेखी कर चुनावी वादे और इरादे बनते-बिगड़ते हैं, जिसमें शब्दों के चयन की सीमा-परिसीमा का विचार नहीं किया जाता है। कर्नाटक चुनाव प्रचार के दौरान भी यहीं देखने मिला, जब वहां के मुख्य समस्याओं को दरकिनार कर चुनाव को व्यक्तित्वों की लड़ाई, धर्मिक अलगावों और जातीय उलझनों के हवाले कर दिया गया, जिसके बीच राज्य  मूल समस्याएं गौण रह गई।

राजस्थान के बाद कर्नाटक देश में सर्वाधिक सूखाग्रस्त माना जाता है। बीबीसी ने पिछले दिनों अपने एक अध्ययन के दौरान बेंगलुरु को उन 11 बदनसीब महानगरों में दर्ज किया था, जहां पेयजल संकट चरम पर पहुंच रहा है, तिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक को आदेश दिया है कि वह तमिलनाडु को 177 टीएमसी फीट कावेरी जल जारी करेगा। इससे समूचे सूबे में जबर्दस्त तनाव बना हुआ है और लोगों में जानलेवा अवसाद पसरता जा रहा है। इसके चलते अप्रैल 2013 से नवंबर 2017 के बीच 3,515 किसानों ने खुदकुशी कर ली थी। इनमें 2,525 ने सूखे और फसल की बर्बादी की वजह से जान दी थी। दूसरी ओर, बेंगलुरु के आईटी हब बनने के बाद से यहां के बाद से यहां का ग्रामीण इलाका छह से आठ घंटे तक बिजली कटौती से जूझता है, लेकिन प्रचार के दौरान किसी भी राजनैतिक दल ने इन मुद्दों पर बात नहीँ की, समूचे चुनाव को व्यक्तित्वों की लड़ाई, लिंगायत, भाषा में उलझा कर छोड़ दिया। हालांकि, इस दौरान मठों और मठाधीशों को अपने पाले में खींचने की अंधी दौड़ जरूर चली।

खैर, यह स्थिति सिर्फ इस चुनाव के दौरान नहीं दिखी, बल्कि चुनाव-द-चुनाव यही हाल है। लगता है कि राजनैतिकों में से "नैतिकता" का ह्रास होता जा रहा है। यह हालात और बिगड़ते जा रहे हैं। कुल मिलकर, लगता है कि भारतीय राजनीति के वे दिन अब लद गए, जब को सादगी नेताओं का आभूषण हुआ करती थी और विरोध भी सधी जुबान से किया जाता था।
-संपादकीय

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