काशी सत्संग: जीवन की सार्थकता - Kashi Patrika

काशी सत्संग: जीवन की सार्थकता


एक दिन राजा विक्रमादित्य अपने गुरु के दर्शन करने उनके आश्रम पहुंचे। वहां उन्होंने गुरु से कहा, 'गुरु जी, मुझे कोई ऐसा प्रेरक वाक्य बताइए, जो महामंत्र बनकर न केवल मेरा बल्कि मेरे उत्तराधिकारियों का भी मार्गदर्शन करता रहे।'

गुरुजी ने उन्हें एक श्लोक लिखकर दिया जिसका आशय यह था-'मनुष्य को दिन व्यतीत हो जाने के बाद कुछ समय निकालकर यह चिंतन अवश्य करना चाहिए कि आज का मेरा पूरा दिन पशुवत गुजरा या सत्कर्म करते हुए बीता। क्योंकि बिना कार्य, समाजसेवा, परोपकार आदि के तो पशु भी अपना गुजारा प्रतिदिन करते हैं, जबकि मनुष्य का कर्त्तव्य तो अपने जीवन को सार्थक करना है।

इस श्लोक का राजा विक्रमादित्य पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने इसे अपने सिंहासन पर अंकित करवा दिया। अब वह रोज रात को यह विचार करते कि उनका दिन अच्छे काम में बीता या नहीं। एक दिन अति व्यस्तता के कारण वह किसी की मदद अथवा परोपकार का कार्य नहीं कर पाए।

रात को सोते समय दिन के कामों का स्मरण करने पर उन्हें याद आया कि आज उनके हाथ से कोई सद्कार्य नहीं हो पाया। वह बेचैन हो उठे, उन्होंने सोने की कोशिश की पर उन्हें नींद नहीं आई।आखिरकार वह उठकर बाहर निकल गए। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक गरीब आदमी ठंड में सिकुड़ता हुआ पड़ा है। उन्होंने उसे अपना दुशाला ओढ़ाया और फिर राजमहल में लौट आए। अब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि आज का दिन अच्छा बीता।

उन्होंने सोचा कि यदि प्रत्येक व्यक्ति कार्य, सद्भावना व परोपकार को अपनी दिनचर्या में शामिल कर ले, तो उसका जीवन अवश्य सार्थक हो जाएगा और यह सोचते हुए उन्हें नींद आ गई।
कबीर ने कहा है कि-  
                     परमारथ हरि रूप है, करो सदा मन लाये
                     पर उपकारी जीव जो, सबसे मिलते धाये।
परमार्थ दूसरों की सहायता करना ईश्वर का हीं स्वरुप है।इसे सदा मनोयोग पूर्वक करना चाहिए, जो दूसरों का उपकार मदद करता है-प्रभु उससे दौड़कर गले मिलते हैं। 
ऊं तत्सत...

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