बेबाक हस्तक्षेप - Kashi Patrika

बेबाक हस्तक्षेप

भारत गणराज्य की मूलभूत आत्मा इसका संविधान हैं। भारतीय मनीषियों ने बहुत सोच समझ कर इसका निर्माण किया हैं। जहाँ इसमें मूल अधिकारों का पुट हैं तो वही इसमें मौलिक कर्तव्यों के दायित्व का भी बोध हैं। तमाम प्रावधानों के साथ-साथ इसमें बदलाव का भी प्रावधान हैं जो समय काल के अनुसार परिवर्तन को भी सहारा देता हैं।

आज भारत के नागरिक को किसी चीज से सबसे ज्यादा खतरा हैं तो संविधान के बदलते स्वरूप से हैं जिसे राजनीतिक दलों द्वारा तोड़ा-मड़ोरा जा रहा हैं। आज जिस राजनीतिक समीकरण का देश की सर्वोच्च शासन व्यवस्था पर कब्ज़ा हैं वो गाहे-बगाहे संविधान की मर्यादा को ताक पर रखती दिख  रही है।

ये तत्कालीन केंद्र सरकार ही हैं जिसने भारत गणराज्य की दिशा ही मोड़ दी हैं। विपक्षी दलों की माने तो आज देश में संविधान का शासन न के बराबर हैं। इसका सबसे ज्यादा माखौल तब उड़ाया गया जब प्रधानमंत्री ने विधि द्वारा मान्य देश की मुद्रा को तत्कालीन प्रभाव से ख़ारिज कर दिया। ये एक कठिन निर्णय था जिसे केवल आपातकाल स्थिति के समय उठाया जाना चाहिए था।

केंद्र की सत्ता का दो केंद्रों से संचालन के आरोप हो या फिर मंत्रिमंडल की पूरी शक्ति का प्रयोग केवल प्रधानमंत्री में समाहित हो जाना। इसके इतर भी प्रधानमंत्री का खुद को ही विदेश मंत्री के रूप में प्रायोजित करना सभी कही न कही संविधान का माखौल उड़ाते ही नजर आते हैं।

पिछले चार साल के शासन में बीजेपी ने सभी संवैधानिक संस्थानों को कमजोर कर दिया हैं इसका उदाहरण गाहे बगाहे विपक्ष और आम नागरिक देते रहते हैं। पूरी शासन व्यवस्था का ही मजाक बना दिया गया सा प्रतीत होता हैं। देश के सर्वोच्च शिक्षा केंद्रों को पूरी तरह से परिवर्तित करने के फ़िराक में नई शिक्षा नीति के नाम पर इन्हे बर्बाद किया जा रहा हैं।

आज की स्थिति भी वैसी होती जा रही हैं जिसमे लोगों का शासन व्यवस्था से विश्वास उठता जा रहा हैं। शायद वो दिन दूर नहीं जब भ्रष्टाचार और अंधाधुन निजीकरण का परिणाम भारत की नई पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा। और उस समय उन्हें बचाने के लिए संविधान के प्रावधान भी नहीं होंगे।

:संपादकीय 

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