एक नगर सेठ थे। उनकी रसोई से प्रतिदिन भूखों को भोजन कराया जाता था। सेठ धार्मिक व्यक्ति थे। सत्कार्यों का यश लेना चाहते थे, लेकिन ज्यादा धन खर्च नहीं करना चाहते थे। भूखों को भोजन खिलाते थे, लेकिन ख़राब अनाज का। नगरसेठ का अनाज का व्यापार था, जो अनाज खराब हो जाता, उसी अनाज की रोटी बना कर भूखों को दान देते थें।
इसी प्रकार दिन बीतते गये। घर में पुत्रवधू आई। अब रसोई संभालना पुत्रवधु का काम था। वह बहुत दानशील, संस्कारी व धार्मिक थी।
एक दिन नगरसेठ खाना खाने बैठे। वधू ने भोजन परोसा। एक कौर मुंह में दिया ही था कि थू-थू कर के उठ गये, पूछा, “रसोई में इतना आटा है, यह खराब आटे की रोटी क्यों बना दी?”
वधू बोली,“पिताजी, यह वैसी रोटी है, जो रोज दान में भूखों को दी जाती है। आपको भी यही खाने की आदत डाल लेनी चाहिए। सुना है परलोक में वही मिलता है, जो भूलोक में दान करते हैं।”
सेठ ने फौरन खराब आटा फिकवा दिया और दान के लिये अच्छे अनाज का प्रबंध कर दिया। यानी ‛यश पाने के लिए निरर्थक एवम् अनुपयोगी वस्तुओं का दान न करें।’
ऊं तत्सत...
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