आधी-अधूरी योजनाओं को अमली जामा पहनना देश के राजनेताओं की पुरानी आदत रही हैं। इन्हीं योजनाओं के इर्दगिर्द देश की राजनीति होती हैं और सरकारें बनती बिगड़ती रहती हैं। सत्ता परिवर्तन के बाद कुछ दिनों के लिए योजनाओं की स्थिलता कम हो जाती हैं और फिर से समय बीतने के साथ वही सरकारी फाइलों का एक डेस्क से दूसरे डेस्क तक घूमने का अनवरत सिलसिला शुरू हो जाता हैं।
सरकार के दावों की माने तो तत्कालीन केंद्र सरकार की नीतियों से देश में उद्योग और व्यापार को बल मिला हैं। आज भारत विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया हैं। पर लेट लतीफी और योजनाओं को टालने की प्रक्रिया अभी जस की तस दिखाई पड़ती हैं। हालिया आई कुछ ख़बरों के हवाले से अगर कहा जाए तो तत्कालीन केंद्र सरकार ने भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें लटकाने का काम किया हैं। इन मुद्दों में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हैं ‛गंगा सफाई’, जिस पर सरकार लगभग चुप्पी साधे है। 1992 से ही सरकारों ने गंगा सफाई का कार्य प्रारम्भ किया और करोड़ों रुपए गंगा सफाई के नाम पर सरकारी खजानों से विभिन्न योजनाओं पर लगाए गए पर नतीजा कुछ भी नहीं निकला। तत्कालीन सरकार ने भी गंगा सफाई के नाम पर कई योजनाए बनाई और करोड़ों रुपए खर्च किये, पर हाल ही में राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने साफ़ कर दिया हैं कि गंगा एक इंच भी साफ़ नहीं हुई हैं।
बढ़ते शहरीकरण के बीच शहरों से बड़े पैमाने पर निकलने वाले सॉलिड वेस्ट के निस्तारण का मामला भी एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा हैं। समस्या गंभीर हैं पर सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर विभिन्न राज्यों की सरकारों को फटकारा और जुर्माना भी लगाया हैं। पर कार्यप्रणाली में स्थिलता का स्तर इतना ज्यादा हैं कि परिणाम का निकलना मुश्किल ही लगता हैं।
साधारणतया आज लगभग केंद्र सरकार की सभी महत्वपूर्ण योजनाएं ऐसी हैं, जिनके निर्माण में ही तैयारी आधी अधूरी हैं। फिर चाहे वो व्यापारिक प्रवित्ति को बढ़ावा देने के लिए बनी मुद्रा योजना हो या गरीब महिलाओं को गैस वितरण की योजना। जब तक सरकार व्यापर के सुगमता के लिए ठोस नियम नहीं बनाती।मुद्रा योजना से बड़े पैमाने पर व्यापारियों का निर्माण कम ही होने की सम्भावना है, जो रोजगार की जगह स्वरोजगार करके देश के भीतर बड़े पैमाने पर लोगों को काम देने का कार्य कर सकते हैं। समुचित विकास के लिए सरकार को स्थानीय स्तर के क्रियाकलापों को ध्यान में रखकर मुद्रा योजना के अनुरूप शिक्षा के क्षेत्र में भी बड़े बदलाव करने होंगे। पर ऐसा अब तक कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा हैं।केवल गैस दे देने से समस्या का निपटारा भी नहीं हो सकता, जब तक सरकार इन गरीब परिवारों की आय बढ़ाने का कोई ठोस उपाय नहीं ढूढ़ लेती।
कुल मिलाकर, आरोप-प्रत्यारोप के बीच सरकारें बनती बिगड़ती रहती हैं और योजनाओं का खाका भी तैयार होता रहता है, पर जनता के हाथ खाली हैं। स्थिति में बदलाव की उम्मीद भी नहीं दिखती क्योंकि पक्ष-विपक्ष एक से हैं और जनता की भलाई से किसी का कोई वास्ता नहीं दिखता।
■ संपादकीय
सरकार के दावों की माने तो तत्कालीन केंद्र सरकार की नीतियों से देश में उद्योग और व्यापार को बल मिला हैं। आज भारत विश्व की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया हैं। पर लेट लतीफी और योजनाओं को टालने की प्रक्रिया अभी जस की तस दिखाई पड़ती हैं। हालिया आई कुछ ख़बरों के हवाले से अगर कहा जाए तो तत्कालीन केंद्र सरकार ने भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें लटकाने का काम किया हैं। इन मुद्दों में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हैं ‛गंगा सफाई’, जिस पर सरकार लगभग चुप्पी साधे है। 1992 से ही सरकारों ने गंगा सफाई का कार्य प्रारम्भ किया और करोड़ों रुपए गंगा सफाई के नाम पर सरकारी खजानों से विभिन्न योजनाओं पर लगाए गए पर नतीजा कुछ भी नहीं निकला। तत्कालीन सरकार ने भी गंगा सफाई के नाम पर कई योजनाए बनाई और करोड़ों रुपए खर्च किये, पर हाल ही में राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल ने साफ़ कर दिया हैं कि गंगा एक इंच भी साफ़ नहीं हुई हैं।
बढ़ते शहरीकरण के बीच शहरों से बड़े पैमाने पर निकलने वाले सॉलिड वेस्ट के निस्तारण का मामला भी एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा हैं। समस्या गंभीर हैं पर सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर विभिन्न राज्यों की सरकारों को फटकारा और जुर्माना भी लगाया हैं। पर कार्यप्रणाली में स्थिलता का स्तर इतना ज्यादा हैं कि परिणाम का निकलना मुश्किल ही लगता हैं।
साधारणतया आज लगभग केंद्र सरकार की सभी महत्वपूर्ण योजनाएं ऐसी हैं, जिनके निर्माण में ही तैयारी आधी अधूरी हैं। फिर चाहे वो व्यापारिक प्रवित्ति को बढ़ावा देने के लिए बनी मुद्रा योजना हो या गरीब महिलाओं को गैस वितरण की योजना। जब तक सरकार व्यापर के सुगमता के लिए ठोस नियम नहीं बनाती।मुद्रा योजना से बड़े पैमाने पर व्यापारियों का निर्माण कम ही होने की सम्भावना है, जो रोजगार की जगह स्वरोजगार करके देश के भीतर बड़े पैमाने पर लोगों को काम देने का कार्य कर सकते हैं। समुचित विकास के लिए सरकार को स्थानीय स्तर के क्रियाकलापों को ध्यान में रखकर मुद्रा योजना के अनुरूप शिक्षा के क्षेत्र में भी बड़े बदलाव करने होंगे। पर ऐसा अब तक कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा हैं।केवल गैस दे देने से समस्या का निपटारा भी नहीं हो सकता, जब तक सरकार इन गरीब परिवारों की आय बढ़ाने का कोई ठोस उपाय नहीं ढूढ़ लेती।
कुल मिलाकर, आरोप-प्रत्यारोप के बीच सरकारें बनती बिगड़ती रहती हैं और योजनाओं का खाका भी तैयार होता रहता है, पर जनता के हाथ खाली हैं। स्थिति में बदलाव की उम्मीद भी नहीं दिखती क्योंकि पक्ष-विपक्ष एक से हैं और जनता की भलाई से किसी का कोई वास्ता नहीं दिखता।
■ संपादकीय
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