श्रावण विशेष: आज से बाबा भोलेनाथ का प्रिय माह सावन शुरू हो रहा है। ऐसे में, उनकी प्रिय नगरी काशी और 12 ज्योतिर्लिंगों में एक विश्वनाथ मंदिर की चर्चा न हो, यह संभव नहीं...
देवाधिदेव महादेव भगवान विश्वनाथ की नगरी काशी, जिसे शब्दों में समाहित करना मुश्किल ही नहीं, असंभव सा है। बनारस और वाराणसी के नाम से भी सुविख्यात यह पुण्य नगरी न केवल वेदों, पुराणों में सर्वोपरि है, बल्कि अनेकानेक पुस्तकों ने भी इसके परिसीमन की कोशिश की है। लेकिन, इस पावन, पुरातन, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक नगरी की परिधि का मूल्यांकन संभव नहीं। यहां के पहुंचते ही लगता है, मानो धर्म के साथ स्वयं का साक्षात्कार हो रहा हो। भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ यहीँ हैं। मान्यताएं कहती हैं कि बाबा विश्वनाथ की आराधना से ही वशिष्ठजी तीनों लोकों में पूजे गए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए।
दर्शनमात्र से मिलता है मोक्ष
सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां गंगास्नान कर विश्वनाथ दर्शन मात्र से मोक्ष मिलता है और स्वयं महादेव कानों में तारक-मंत्र का उपदेश देकर प्राणी को संसार के आवागमन से मुक्त करते हैं। एक कथा के अनुसार भगवान शिव ने एकबार क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण के बावजूद वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ, किन्तु काशी में प्रवेश करते ही वे ब्रह्महत्या से मुक्त हो गए। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने भगवान विष्णु से इसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया, तब से काशी विश्वनाथ का निवास स्थान बन गई।
इतिहास और कई हमलों का साक्षी
युगों युगों की साक्षी काशी विश्वनाथ मंदिर ने कई हमले झेले हैं। सन 1194 में कुतुबुद्दीन एबक ने और बाद में अलाउद्दीन खिलजी ने हजारों मंदिरों को नष्ट
किया, जिसमें विश्वनाथ मंदिर भी था। 1585 में सम्राट अकबर के राजस्व मंत्री की मदद से नारायणभ ने विश्वनाथ मंदिर को पुन: बनवाया। बाद में औरंगजेब ने 1669 में इसे तुड़वाकर ज्ञानवापी सरोवर पर मस्जिद बनवा दी। वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा 1780 में कराया गया था। मराठा राजाओं, सरदारों और अंग्रेजों के काल में कई मंदिर बनवाए गए। सन 1828 में प्रिन्सेप द्वारा कराई गणना में काशी में एक हजार मंदिर थे, जबकि शेकिरंग के समय में 1455 मंदिर और हैवेल के मुताबिक 3500 मंदिर थे। सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर को 820 किलोग्राम शुद्ध सोने से मढ़वाया गया था, जो आज भी विद्यमान है।
मंगला आरती है खास
यहां गर्भगृह के भीतर चांदी से मढ़ा भगवान विश्वनाथ का 60 सेंटीमीटर ऊंचा शिवलिंग है। यह मंदिर प्रतिदिन 2:30 बजे भोर में मंगल आरती के साथ खुलता है, फिर 4 बजे से 11 बजे तक सभी के लिए मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। 11:30 बजे की आरती के बाद भगवान को 56 प्रकार का भोग चढ़ाया जाता है, फिर 12 से 7 बजे तक विश्वनाथजी सभी को दर्शन देते हैं। शाम 7 से 8:30 बजे तक महादेव का मनोहारी शृंगार कर सप्तऋषि आरती होती है और दर्शनार्थियों के लिए 9 बजे तक मंदिर खुला रहता है, इसके बाद दर्शन बाहर से संभव है। रात्रि 10:30 की शयन आरती के बाद मंदिर के पट बंद हो जाते हैं।
सावन में दर्शन करते हैं लाखों श्रद्धालु
भगवान भोलेनाथ के प्रिय मास सावन में उनके दर्शन के लिए लाखों श्रद्धालु आते हैं। खासकर सावन के सोमवार को देर रात से ही दर्शनार्थियों का तांता लग जाता है और पूरी काशी नगरी हर-हर महादेव, बोल बम के उद्घोष से गूंज उठती है। भोर में यदुवंशियों द्वारा जलाभिषेक के बाद अन्य भक्तों के अलावा हजारों की संख्या में कांवरिये भी बाबा दरबार के दरबार में पहुंचते हैं।
महाशिवरात्रि पर 24 घंटे लगा रहता है दरबार
महाशिवरात्रि पर यह मंदिर चौबीसों घंटे खुला रहता है, और अपार जनसमूह विश्वनाथ दर्शन को उमड़ पड़ता है। वैसे तो यहां प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति व मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है। इस दिन नगर में शिवगणों की परंपरागत वेशभूषा में बारात निकलती है और रात्रि को शिव विवाह संपन्न होता है। महाशिवरात्रि पर यहां के वैजनत्था मंदिर पर भव्य मेला भी लगता है।
यूं हुई विश्वनाथ की काशी वापसी
एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा दिवोदास ने गंगातट पर वाराणसी बसाया था। एक बार भगवान शिव ने देखा कि देवी पार्वती को अपने मायके (हिमालय क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने दूसरे सिद्ध क्षेत्र में रहने का मन बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी और वे यहां रहने लगे, जिससे अन्य देवी देवता भी काशी आने लगे। इससे राजा दिवोदास को नगर पर अपना अधिपत्य खोने से काफी दु:ख हुआ और उन्होंने कठोर तप कर ब्रह्मा को प्रसन्न किया, जिसके वरदान स्वरूप शिवजी को काशी छोडऩे पर विवश होना पड़ा। लेकिन, महादेव का काशीमोह भंग नहीं हुआ, उन्हें उनकी प्रिय नगरी में बसाने के लिए 64 योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया। गणेशजी के सहयोग से अभियान सफल हुआ और ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो शिवलिंग की स्थापना कर शिवलोक चले गए। ब्रह्माजी ने दस घोड़ों का रथ दशाश्वमेघ घाट भेजकर उनका स्वागत किया और महादेव काशी वापस आ गए और यहीं बस गए।
■ काशी पत्रिका
देवाधिदेव महादेव भगवान विश्वनाथ की नगरी काशी, जिसे शब्दों में समाहित करना मुश्किल ही नहीं, असंभव सा है। बनारस और वाराणसी के नाम से भी सुविख्यात यह पुण्य नगरी न केवल वेदों, पुराणों में सर्वोपरि है, बल्कि अनेकानेक पुस्तकों ने भी इसके परिसीमन की कोशिश की है। लेकिन, इस पावन, पुरातन, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक नगरी की परिधि का मूल्यांकन संभव नहीं। यहां के पहुंचते ही लगता है, मानो धर्म के साथ स्वयं का साक्षात्कार हो रहा हो। भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ यहीँ हैं। मान्यताएं कहती हैं कि बाबा विश्वनाथ की आराधना से ही वशिष्ठजी तीनों लोकों में पूजे गए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए।
दर्शनमात्र से मिलता है मोक्ष
सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां गंगास्नान कर विश्वनाथ दर्शन मात्र से मोक्ष मिलता है और स्वयं महादेव कानों में तारक-मंत्र का उपदेश देकर प्राणी को संसार के आवागमन से मुक्त करते हैं। एक कथा के अनुसार भगवान शिव ने एकबार क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण के बावजूद वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ, किन्तु काशी में प्रवेश करते ही वे ब्रह्महत्या से मुक्त हो गए। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने भगवान विष्णु से इसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया, तब से काशी विश्वनाथ का निवास स्थान बन गई।
इतिहास और कई हमलों का साक्षी
युगों युगों की साक्षी काशी विश्वनाथ मंदिर ने कई हमले झेले हैं। सन 1194 में कुतुबुद्दीन एबक ने और बाद में अलाउद्दीन खिलजी ने हजारों मंदिरों को नष्ट
किया, जिसमें विश्वनाथ मंदिर भी था। 1585 में सम्राट अकबर के राजस्व मंत्री की मदद से नारायणभ ने विश्वनाथ मंदिर को पुन: बनवाया। बाद में औरंगजेब ने 1669 में इसे तुड़वाकर ज्ञानवापी सरोवर पर मस्जिद बनवा दी। वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा 1780 में कराया गया था। मराठा राजाओं, सरदारों और अंग्रेजों के काल में कई मंदिर बनवाए गए। सन 1828 में प्रिन्सेप द्वारा कराई गणना में काशी में एक हजार मंदिर थे, जबकि शेकिरंग के समय में 1455 मंदिर और हैवेल के मुताबिक 3500 मंदिर थे। सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर को 820 किलोग्राम शुद्ध सोने से मढ़वाया गया था, जो आज भी विद्यमान है।
मंगला आरती है खास
यहां गर्भगृह के भीतर चांदी से मढ़ा भगवान विश्वनाथ का 60 सेंटीमीटर ऊंचा शिवलिंग है। यह मंदिर प्रतिदिन 2:30 बजे भोर में मंगल आरती के साथ खुलता है, फिर 4 बजे से 11 बजे तक सभी के लिए मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। 11:30 बजे की आरती के बाद भगवान को 56 प्रकार का भोग चढ़ाया जाता है, फिर 12 से 7 बजे तक विश्वनाथजी सभी को दर्शन देते हैं। शाम 7 से 8:30 बजे तक महादेव का मनोहारी शृंगार कर सप्तऋषि आरती होती है और दर्शनार्थियों के लिए 9 बजे तक मंदिर खुला रहता है, इसके बाद दर्शन बाहर से संभव है। रात्रि 10:30 की शयन आरती के बाद मंदिर के पट बंद हो जाते हैं।
सावन में दर्शन करते हैं लाखों श्रद्धालु
भगवान भोलेनाथ के प्रिय मास सावन में उनके दर्शन के लिए लाखों श्रद्धालु आते हैं। खासकर सावन के सोमवार को देर रात से ही दर्शनार्थियों का तांता लग जाता है और पूरी काशी नगरी हर-हर महादेव, बोल बम के उद्घोष से गूंज उठती है। भोर में यदुवंशियों द्वारा जलाभिषेक के बाद अन्य भक्तों के अलावा हजारों की संख्या में कांवरिये भी बाबा दरबार के दरबार में पहुंचते हैं।
महाशिवरात्रि पर 24 घंटे लगा रहता है दरबार
महाशिवरात्रि पर यह मंदिर चौबीसों घंटे खुला रहता है, और अपार जनसमूह विश्वनाथ दर्शन को उमड़ पड़ता है। वैसे तो यहां प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति व मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है। इस दिन नगर में शिवगणों की परंपरागत वेशभूषा में बारात निकलती है और रात्रि को शिव विवाह संपन्न होता है। महाशिवरात्रि पर यहां के वैजनत्था मंदिर पर भव्य मेला भी लगता है।
यूं हुई विश्वनाथ की काशी वापसी
एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा दिवोदास ने गंगातट पर वाराणसी बसाया था। एक बार भगवान शिव ने देखा कि देवी पार्वती को अपने मायके (हिमालय क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने दूसरे सिद्ध क्षेत्र में रहने का मन बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी और वे यहां रहने लगे, जिससे अन्य देवी देवता भी काशी आने लगे। इससे राजा दिवोदास को नगर पर अपना अधिपत्य खोने से काफी दु:ख हुआ और उन्होंने कठोर तप कर ब्रह्मा को प्रसन्न किया, जिसके वरदान स्वरूप शिवजी को काशी छोडऩे पर विवश होना पड़ा। लेकिन, महादेव का काशीमोह भंग नहीं हुआ, उन्हें उनकी प्रिय नगरी में बसाने के लिए 64 योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया। गणेशजी के सहयोग से अभियान सफल हुआ और ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो शिवलिंग की स्थापना कर शिवलोक चले गए। ब्रह्माजी ने दस घोड़ों का रथ दशाश्वमेघ घाट भेजकर उनका स्वागत किया और महादेव काशी वापस आ गए और यहीं बस गए।
■ काशी पत्रिका
No comments:
Post a Comment