एकादशी से अगले दिन एक भिखारी एक सज्जन की दुकान पर भीख मांगने पहुंचा। सज्जन व्यक्ति ने एक रुपये का सिक्का निकाल कर उसे दे दिया। भिखारी को प्यास भी लगी थी, वो बोला- "बाबूजी एक गिलास पानी भी पिलवा दो, गला सूखा जा रहा है।"
सज्जन व्यक्ति गुस्से में, "तुम्हारे नौकर बैठे हैं क्या हम यहां, पहले पैसे, अब पानी, थोड़ी देर में रोटी मांगेगा, चल भाग यहां से।"
भिखारी बोला- "बाबूजी गुस्सा मत कीजिये मैं आगे कहीं पानी पी लूंगा। पर जहां तक मुझे याद है, कल इसी दुकान के बाहर मीठे पानी की छबील लगी थी और आप स्वयं लोगों को रोक -रोक कर जबरदस्ती अपने हाथों से गिलास पकड़ा रहे थे, मुझे भी कल आपके हाथों से दो गिलास शर्बत पीने को मिला था। मैंने तो यही सोचा था,आप बड़े धर्मात्मा आदमी है, पर आज मेरा भरम टूट गया। कल की छबील तो शायद आपने लोगों को दिखाने के लिये लगाई थी। मुझे आज आपने कड़वे वचन बोलकर अपना कल का सारा पुण्य खो दिया। मुझे माफ़ करना अगर मैं कुछ ज्यादा बोल गया हूँ तो।"
सज्जन व्यक्ति को बात दिल पर लगी, उसकी नजरों के सामने बीते दिन का प्रत्येक दृश्य घूम गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो रहा था। वह स्वयं अपनी गद्दी से उठा और अपने हाथों से गिलास में पानी भरकर उस बाबा को देते हुए उसे क्षमा प्रार्थना करने लगा।
भिखारी- "बाबूजी मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं, परन्तु अगर मानवता को अपने मन की गहराइयों में नहीं बसा सकते, तो एक-दो दिन किये हुए पुण्य व्यर्थ है। मानवता का मतलब तो हमेशा शालीनता से मानव व जीव की सेवा करना है। आपको अपनी गलती का अहसास हुआ, ये आपके व आपकी सन्तानों के लिये अच्छी बात है। आप व आपका परिवार हमेशा स्वस्थ व दीर्घायु बना रहे ऐसी मैं कामना करता हूं", यह कहते हुए भिखारी आगे बढ़ गया।
सेठ ने तुरंत अपने बेटे को आदेश देते हुए कहा- "कल से दो घड़े पानी दुकान के आगे आने जाने वालों के लिये जरूर रखे हो। उसे अपनी गलती सुधारने पर बड़ी खुशी हो रही थी।"
सचमुच, हम अगर एक दिन के पुण्य की धारणा से उबर आएं और हर दिन पुण्य का बना लें, तो मामूली सा संकल्प भी हमें मुक्ति बोध कराने के लिए पर्याप्त है।
ऊं तत्सत...
No comments:
Post a Comment