एक सज्जन थे।बहुत ही मिलनसार थे। आस-पास सभी लोग उनको जानते थे औऱ वह लोगों की ख़बर ऱखते थे। पर उनके पुत्र को यह आदत अच्छी नहीं लगती थी। पिता का अपने से छोटी हैसियत के लोगों के साथ बैठकी करना पुत्र को थोड़ा भी नहीं भाता था। पिता ने उसको समझाया भी ,' बेटा तुम शरीर पर पहने गए कपड़े क्यूँ देखते हो,तुम्हारी आँख बस वही तक़ रुक जाती है। उस व्यक्ति में क्या है यह तो तुम ढूंढ ही नहीं पाते। सम्मान पैसों का नहीं,व्यक्ति के गुणों का करना चाहिए।' पर पुत्र को पुरखों द्वरा अथाह अर्जित किये पैसों का इतना घमण्ड था के वह बाद के मर्म को भांप ही नहीं रहा था।
एक रोज़ गर्मी की एक दुपहरी में उसके घर से सटे पेड़ के नीचे आस- पास के ग़रीब घरों के बच्चें जुट कर अपनी दोपहरी बिता रहे थे। तभी वह घमंडी पुत्र बालकनी में आता है औऱ उन बच्चों पर बरस पड़ता है, 'तुम्हारे पास घर नहीं है क्या , दिन भर चिल्लाते रहते हो, भागों यहाँ से।' सभी बच्चे वहाँ से हट जाते है पर उमर में कुछ बड़ी एक लड़की , जबाव देती है, 'भईया बोलने से तो आप इतने अच्छे परिवार के नहीं लगते।गर्मी में टीन की तपती छत से इस पेड़ की छाँव अग़र हमें सुलभ है तो आपकों इसमें क्या दिक्कत है । आप को ठंढे कमरे में बैठ कर भी हमारी परेशानी समझ नहीं आती।' फिर वह गोद मे पकड़े छोटे बच्चे को लेकर वहाँ से चली गई।
जाते हुए बच्चे की रोने की आवाज़ अब पुत्र को ऐसी से ठंढे हुए उसके कमरे, गद्देदार बिस्तर, औऱ आद्मकाये टेलीविजन पर चल रही उसकी पसंद की सिनेमा में भी चैन से नहीं बैठने दे रही थी।
-अदिति-
No comments:
Post a Comment