काशी सत्संग: शुद्ध हृदय - Kashi Patrika

काशी सत्संग: शुद्ध हृदय


"वृंदावन" में एक भक्त रहते थे, जो स्वभाव से बहुत ही भोले थे। उनमें छल, कपट, चालाकी बिलकुल नहीं थी। बचपन से ही वे "श्री वृंदावन" में रहते थे। श्रीकृष्ण स्वरुप में उनकी अनन्य निष्ठा थी और वे भगवान को अपना सखा मानते थे और जो मन में आता है, वही भगवान से बोल देते।
वो भक्त कभी "वृंदावन" से बाहर गए नहीं थे। एक दिन भोले भक्त जी को कुछ लोग "श्री जगन्नाथ पुरी" में भगवान के दर्शन करने ले गए। पुराने दिनों में बहुत भीड़ नहीं होती थी। अतः वे सब लोग श्री जगन्नाथ भगवान के बहुत पास दर्शन करने गए।
भोले भक्त जी ने श्री जगन्नाथजी का स्वरुप कभी देखा नहीं था उसे अटपटा लगा।
उसने पूछा–ये कौन से भगवान हैं? ऐसे डरावने क्यों लग रहे है?
पुजारी लोग कहने लगे–ये भगवान श्रीकृष्ण ही हैं, प्रेम भाव में इनकी ऐसी दशा हो गयी है
जैसे ही उसने सुना- वो जोर जोर से रोने लग गया और ऊपर जहां भगवान विराजमान हैं, वहाँ जाकर चढ़ गया। पुजारी यह देखकर भागे और उससे कहने लगे कि नीचे उतरो। परंतु वह नीचे नहीं उतरा उसने भगवान को आलिंगन देकर कहा– "अरे कन्हैया ! ये क्या हालात बना रखी है तूने ? ये चेहरा कैसे फूल गया है तेरा, तेरे पेट की क्या हालत हो गयी है। यहां तेरे खाने-पीने का ध्यान नहीं रखा जाता क्या? मैं प्रार्थना करता हूं, तू मेरे साथ अपने ब्रज में वापस चल। मैं दूध, दही, माखन खिलाकर तुझे बढ़िया पहले जैसा बना दूंगा, सब ठीक हो जायेगा तू चल।
उधर, पुजारी भक्त जी को नीचे उतारने का प्रयास करने लगे। कुछ तो नीचे से पीटने भी लगे, परंतु वह रो-रो कर बार-बार यही कह रहा था कि कन्हैया, तू मेरे साथ "ब्रज" चल, मैं तेरा अच्छी तरह ख्याल करूँगा। तेरी ऐसी हालत मुझसे देखी नहीं जा रही।
अब वहाँ गड़बड़ मच गयी। तो भगवान ने अपने माधुर्य श्रीकृष्ण रूप के उसे दर्शन करवाये और कहा- भक्तों के प्रेम में बंध कर मैंने कई अलग-अलग रूप धारण किये हैं, तुम चिंता मत करो। जो जिस रूप में मुझे प्रेम करता है, मेरा दर्शन उसे उसी रूप में होता है। मैं तो सर्वत्र विराजमान हूँ।
उसे श्री जगन्नाथजी ने समझा-बुझाकर आलिंगन प्रदान किया और आशीर्वाद देकर वृंदावन वापस भेज दिया। इस लीला से स्पष्ट है कि जो छलकपट से रहित शुद्ध हृदय का होता है, उसे भगवान सहज ही मिल जाते हैं।
ऊं तत्सत...

No comments:

Post a Comment