'स्वप्न'- कविताओं की धूप-छाँव - Kashi Patrika

'स्वप्न'- कविताओं की धूप-छाँव


शब्दों में जादू है,
सुनती भी आयीं हूँ, देखती भी आयीं हूँ। 
शब्दों में उलझे लोग, शब्दों को गढ़ते लोग,
सुनती भी आयीं हूँ , देखती भी आयीं हूँ। 


शब्दों को अपनी रचनाओं में ढालते लोग,
शब्दों से ख़ुद को , दूसरों को छलते लोग। 
शब्दों से भ्रमित होते लोग , शब्दों को ब्रह्म कहते लोग। 
देखती भी आयीं हूँ , सुनती भी आयीं हूँ। 
पर क्या ब्रह्म जादू है ?
या कि उलझा है, उलझता है ,
गढ़ता है , गढ़वाता है ,
रचता है या रचवाता है ,
छलता है या छलवाता है ,
भ्रमित है या भरमाता है ,
ब्रह्म तो मौन है ,
ध्यान है , सत्य है। 
और सत्य कभी बोलता नहीं,
वह होता है। 
क्या कहूँ के तुम मेरा वही मौन हो।



-याशिका तिवारी -

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