“निंदा में रस क्यों है?” - Kashi Patrika

“निंदा में रस क्यों है?”

तुम विध्वंस की तलाश में रहते हो। कहीं तुम्हें कुछ तोड़ने-फोड़ने को मिल जाए, तो तुम्हारे आनंद का अंत नहीं होता। बनाने में किसी का कोई रस नहीं है, मिटाने की बड़ी उत्सुकता है...

निंदा का बड़ा भाव है। अगर मैं किसी की निंदा करूं, तो आप बिना किसी विवाद के स्वीकार कर लेते हैं। अगर मैं किसी की प्रशंसा करूं, तो आपका मन एकदम चौंक जाता है, आप स्वीकार करने को राजी नहीं होते हैं। आप कहते हैं, सबूत क्या है? प्रमाण क्या है? आप वहम में पड़ गए हैं! लेकिन जब कोई निंदा करता है, तब आप ऐसा नहीं कहते।

कभी आपने देखा कि कोई आ कर जब आपको किसी की निंदा करता है, तो आप कैसे मन से, कैसे भाव से स्वीकार करते हैं? आप यह नहीं पूछते कि यह बात सच है? आप यह नहीं पूछते कि इसका प्रमाण क्या है? आप यह भी नहीं पूछते कि जो आदमी इसकी खबर दे रहा है, वह प्रमाण योग्य है? आप यह भी नहीं पूछते कि इसको मानने का क्या कारण है? क्या प्रयोजन है?

नहीं, कोई निंदा करता है, तो आपका प्राण एकदम खुल जाता है, फूल खिल जाते हैं, सारी निंदा को आत्मसात करने के लिए मन राजी हो जाता है! और इतना ही नहीं, जब आप यही निंदा दूसरे को सुनाते हैं, क्योंकि ज्यादा देर आप रुक नहीं सकते। घड़ी, आधा घड़ी बहुत है। आप भागेंगे किसी को बताने को। क्योंकि निंदा का रस ही ऐसा है। वह हिंसा है। और अहिंसक दिखाई पड़ने वाली हिंसा है। किसी को छुरा मारो अदालत में, पकड़े जाओगे। लेकिन निंदा मारो, तो कोई पकड़ने वाला नहीं है। कोई कारण नहीं है, कोई झंझट नहीं है।

लेकिन कोई तुमसे प्रशंसा करे किसी की, तुमसे नहीं सहा जाता फिर, तुम्हारा हृदय बिलकुल बंद हो जाता है, द्वार—दरवाजे सख्ती से बंद हो जाते हैं। और तुम जानते हो कि यह बात गलत है, यह प्रशंसा हो नहीं सकती, यह आदमी इस योग्य हो नहीं सकता। तुम तर्क करोगे, तुम दलील करोगे, तुम सब तरह के उपाय करोगे, इसके पहले कि तुम मानो कि यह सच है। और तुम जरूर कुछ न कुछ खोज लोगे, जिससे यह सिद्ध हो जाए कि यह सच नहीं है। और तुम आश्वस्त हो जाओगे कि नहीं, यह बात सच नहीं थी। और यह कहने तुम किसी से भी न जाओगे, कि यह प्रशंसा की बात तुम किसी से कहो। यह तुम्हारा जीवन के प्रति असम्मान है और मृत्यु के प्रति तुम्हारा सम्मान है।

अपनी उत्सुकता को खोजो, और अपनी उत्सुकता को जीवन की तरफ ले जाओ। और जहां भी तुम्हें जीवन दिखाई पडे, वहां तुम सम्मान से भर जाना। वहां तुम अहोभाव से भर जाना। और तुमसे जीवन के लिए जो कुछ बन सके, तुम करना।

अगर ऐसा तुम्हारा भाव हो तो तुम अचानक पाओगे, तुम्हारी हजार चिंताएं खो गईं, क्योंकि वे तुम्हारी रुग्ण—वृत्ति से पैदा होती हैं। तुम्हारे हजार रोग खो गए, क्योंकि तुम्हारे रोग, तुम विध्वंस की भावना से भरते थे। तुम्हारे बहुत से घाव मिट गए, क्योंकि उन घावों को तुम दूसरे को दुख पहुंचा—पहुंचा कर खुद भी अपने को दुख पहुंचाते थे और हरा करते थे।

इस जगत में केवल वही आदमी आनंद को उपलब्ध हो सकता है, जो अपनी तरफ से, जहां भी आनंद घटित होता हो,उस आनंद से आनंदित होता है।
■ ओशो


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