...अपना भी कोई साथी होता, हम भी बहकते चलते-चलते - Kashi Patrika

...अपना भी कोई साथी होता, हम भी बहकते चलते-चलते


दिल की तमन्ना थी मस्ती में मंजिल से भी दूर निकलते,
अपना भी कोई साथी होता, हम भी बहकते चलते-चलते।

होते कहीं हम और तुम, ख्वाबों की रँगीन वादी में गुम,
फिर उन ख्वाबों की वादी से, उठते आँखें मलते-मलते।

हँसती जमीं, गाते कदम, चलते नजारे, चलते जो हम,
रुकते हम तो रुक-रुक जाता, ढलता सूरज ढलते-ढलते।

साथी मिला, यूँ तो मगर, रस्ते में था चाँदी का नगर,
चाँदी की नगरी भाई उसे हम, रह गए आँखें मलते-मलते।

यादों की धूल आँखों में है, दामन की हसरत हाथों में है,
ख्वाबों के वीराने में तन्हा, थक गया राही चलते-चलते।
■ मजरूह सुल्तानपुरी

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