कूचा-ए-यार में कुछ दूर चले जाते हैं - Kashi Patrika

कूचा-ए-यार में कुछ दूर चले जाते हैं


कूचा-ए-यार में कुछ दूर चले जाते हैं,
हम तबीअ'त से हैं मजबूर चले जाते हैं,

हम कहाँ जाते हैं ये भी हमें मा'लूम नहीं,
बादा-ए-इश्क से मखमूर चले जाते हैं,

गरचे आपस में वो अब रस्म-ए-मोहब्बत न रही,
तोड़-जोड़ उन के ब-दस्तूर चले जाते हैं,

बैठे बैठे जो दिल अपना कभी घबराता है,
सैर करने को सर-ए-तूर चले जाते हैं,

कैस ओ फरहाद के मरने का जमाना गुजरा,
आज तक इश्क के मजकूर चले जाते हैं।
■ नूह नारवी

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