बेबाक हस्तक्षेप - Kashi Patrika

बेबाक हस्तक्षेप

बरसात से जलमग्न शहर-गांव एक बार फिर शासन-प्रशासन की मुस्तैदी, जल निकासी प्रबंधन और बाढ़ जैसी स्थिति से निपटने संबंधी तैयारियों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। आम जन किस्मत-मौसम-प्रशासन को कोसता हुआ इन दुश्वारियों को झेलते हुए बाहर निकलने को मजबूर है। उत्तर प्रदेश में बाढ़ और मकान गिरने से करीब पैंसठ लोग अब तक अपनी जान गंवा चुके हैं। देश की राजधानी दिल्ली में बीते हफ्ते जगह-जगह जलभराव की वजह से लोगों का घरों से बाहर निकलना मुश्किल हो गया, तो आसपास के इलाकों में कई मकान धराशायी हो गए। यमुना उफन कर खतरे के निशान को छू गई। बिहार की राजधानी पटना शहर स्थित नालंदा मेडिकल कॉलेज अस्पताल का गहन चिकित्सा कक्ष समेत तमाम कमरे जलमग्न हो गए। यानी गांव ही नहीँ राजधानियों तक की यह स्थिति हो जाती है। देश की आर्थिक राजधानी कही जाने वाली मुंबई महज कुछ घंटों की बरसात में डूबने लगती है। देश के ज्यादातर हिस्सों में हर साल बरसात में यही मंजर दिखता है। सामान्य से कुछ अधिक बारिश होती है, जलभराव से शहरों में स्थिति विकट हो जाती है।

खासकर, शहरों के विस्तार और आधुनिकीकरण के साथ ही बरसात में जलभराव अधिक होने लगा है,यानी अत्याधुनिक तकनीक और सुविधा सामग्री का उपयोग तो होने लगा है, लेकिन  शहरी नियोजन में जल निकास पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता। रिहाइशी और औद्योगिक इलाकों के जल निकास के लिए बने ज्यादातर नाले खुले हुए हैं और वे आमतौर पर प्लास्टिक के कचरे से भरे रहते हैं। बरसात से पहले उनकी सफाई न हो पाने के कारण उनसे पानी नहीं निकल पाता। यही स्थिति नदियों की होती गई है। गाद और कचरा भरते जाने और उनके किनारों तक रिहाइशी बस्तियां फैल जाने के कारण उनका पेटा उथला और पाट सिकुड़ता गया है, उनकी जल संग्रहण क्षमता काफी घट गई है, इसलिए बरसात के समय उफन कर उनका पानी शहरों के निचले हिस्सों में फैल जाता है।

नदियों में कचरे के प्रवाह को रोकने की अब तक की तमाम योजनाएं विफल साबित हुई हैं। नदियों के पाटों पर अतिक्रमण रोकने में प्रशासन नाकाम रहा है। इसी तरह शहरों में बढ़ती आबादी के मुताबिक नागरिक सुविधाएं जुटाने और गैरकानूनी तरीके से बसती बस्तियों पर नजर रखने में लापरवाही का आलम है। भवन निर्माण में नियम-कायदों की अनदेखी आम है। सड़कों और पुलों के निर्माण में कमीशनखोरी और कमाई की प्रवृत्ति पर रोक लगाना चुनौती बना हुआ है। यही वजह है कि बरसात में अक्सर सड़कों-पुलों के धंसने, मकानों के धसकने और धराशायी हो जाने की घटनाएं होती हैं और लोगों को नाहक अपनी जान गंवानी पड़ती है। हर साल बरसात शहरी नियोजकों को संकेत दे जाती है कि उन्हें किन कमजोरियों को दुरुस्त करने की जरूरत है, पर विडंबना है कि बरसात बीतती है और उसे भुला दिया जाता है। जनता की मूलभूत जरूरतों की ओर भी किस कदर प्रशासन लापरवाह रहता है, यह समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। एक बार फिर बरसात का मौसम है। दर्जनों लोग अब तक विभिन्न हिस्सों में जान गंवा चुके है। कुछ और बरसात खत्म होते-होते लापरवाही की बलि चढ़ जाएंगे। और शासन-प्रशासन अगली बरसात तक सब दुरुस्त कर लेने का वादा कर जनता को धोखे की घुट्टी पिला कर स
■ संपादकीय

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