दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर के हो गए,
जो सर उठा के निकले थे बे सर के हो गए।
ये शहर तो है आप का, आवाज किस की थी,
देखा जो मुड़ के हमने तो पत्थर के हो गए।
जब सर ढका तो पाँव खुले, फिर ये सर खुला
टुकड़े इसी में पुरखों की चादर के हो गए।
दिल में कोई सनम ही बचा, न खुदा रहा,
इस शहर पे जुल्म भी लश्कर के हो गए।
हम पे बहुत हँसे थे, फरिश्ते सो देख लें,
हम भी करीब गुम्बदे-बेदर के हो गए।
■ कैफी आजमी
No comments:
Post a Comment