“शिव वाणी: विज्ञान भैरव तंत्र” - Kashi Patrika

“शिव वाणी: विज्ञान भैरव तंत्र”

विज्ञान भैरव तंत्र का जगत बौद्धिक नहीं है, दार्शनिक नहीं है। सिद्धांत इसके लिए अर्थ नहीं रखता। यह उपाय की, विधि की चिंता करता है। तंत्र शब्द का अर्थ ही है विधि, उपाय, मार्ग। तंत्र का अर्थ विधि है, इसलिए यह एक विज्ञान ग्रंथ है...

विज्ञान ‘क्यों’ की नहीं, ‘कैसे’ की फिक्र करता है। दर्शन और विज्ञान में यही बुनियादी भेद है। दर्शन पूछता है: यह अस्तित्व क्यों है? विज्ञान पूछता है: यह अस्तित्व कैसे है? तंत्र विज्ञान है, दर्शन नहीं।

दर्शन को समझना आसान है, क्योंकि उसके लिए सिर्फ मस्तिष्क की जरूरत पड़ती है। लेकिन, तंत्र को समझने के लिए तुम्हारे बदलने की जरूरत होगी, बदलाहट की नहीं, आमूल बदलाहट की जरूरत होगी। जब तक तुम बिल्कुल भिन्न नहीं हो जाते हो, तब तक तंत्र को नहीं समझा जा सकता। क्योंकि तंत्र कोई बौद्धिक प्रस्तावना नहीं है, वह एक अनुभव है।

विज्ञान भैरव तंत्र देवी के प्रश्नों से शुरू होता है। देवी ऐसे प्रश्न पूछती हैं, जो दार्शनिक मालूम होते हैं। लेकिन शिव उत्तर उसी ढंग से नहीं देते। देवी पूछती हैं- प्रभो आपका सत्य क्या है? शिव इस प्रश्न का उत्तर न देकर उसके बदले में एक विधि देते हैं। अगर देवी इस विधि से गुजर जाएँ तो वे उत्तर पा जाएँगी। इसलिए उत्तर परोक्ष है, प्रत्यक्ष नहीं।

शिव नहीं बताते कि मैं कौन हूँ, वे एक विधि भर बताते हैं। वे कहते हैं : यह करो और तुम जान जाओगे। तंत्र के लिए करना ही जानना है। तुम एक प्रश्न पूछते हो और दर्शन एक उत्तर दे देता है, उससे तुम चाहे संतुष्ट होते हो या नहीं होते हो, यदि संतुष्ट हुए तो उस दर्शन के अनुयायी हो जाते हो, लेकिन तुम वही के वही रहते हो। और यदि संतुष्ट नहीं हुए तो दूसरे दर्शन की खोज में निकल चलते हो, जिनसे संतुष्टि मिल सके। लेकिन, तुम वही के वही रहते हो, अछूते, अपरिवर्तित।

इसलिए तंत्र समाधान नहीं देता, समाधान को उपलब्ध होने की विधि देता है। अगर तुम अंधे आदमी को प्रकाश के बारे में कुछ कहोगे, तो वह कहना बौद्धिक होगा। और अगर अंधा स्वयं देखने में सक्षम हो जाता है, तो वह अस्तित्वगत बात होगी। तंत्र अस्तित्वगत है, इस अर्थ में।

तंत्र के सभी ग्रंथ शिव और देवी के बीच संवाद हैं। देवी पूछती हैं और शिव जवाब देते हैं। सभी तंत्र-ग्रंथ ऐसे ही शुरू होते हैं। क्यों? यह ढंग क्यों? यह बहुत अर्थपूर्ण है। यह संवाद किन्हीं गुरु और शिष्य के बीच संवाद नहीं है, यह संवाद घटित होता है, दो प्रेमियों के बीच। तंत्र इसके द्वारा एक बहुत अर्थपूर्ण बात की खबर देता है : यह कि गहराई की शिक्षा तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक कि दोनों के, शिष्य और गुरु के बीच प्रेम का संबंध न हो।

शिष्य और गुरु को गहरे प्रेमी होना होगा। तब और तभी- ऊँचाई को, पार को अभिव्यक्त किया जा सकता है, प्रकट किया जा सकता है। इसलिए देवी प्रिया ही नहीं हैं, शिव की अर्द्धांगिनी हैं। जब तक शिष्य गुरु का दूसरा अर्धांग नहीं बन जाता, ऊँचाई की शिक्षा, गुह्य विधियों की शिक्षा नहीं दी जा सकती। जब तुम गुरु के साथ ऐसे एक हो जाओगे- समग्ररूपेण, गहनरूपेण, कि तर्क न रहा, बुद्धि न बची, तब तुम ग्रहण करते हो, तब तुम गर्भ बन जाते हो। और तब गुरु की शिक्षा तुममें वृद्धि पाती है, तुम्हें बदलने लगती है।

इसलिए तंत्र की एक निश्चित अवस्था है, ढंग है। उसका हरेक ग्रंथ देवी के प्रश्न और शिव के उत्तर से शुरू होता है। दलील के लिए उसमें जगह नहीं है, शब्दों का वहाँ अपव्यय नहीं है। उसमें तथ्यों के सीधे-सादे वक्तव्य हैं, जो तारनुमा भाषा में, संक्षिप्ततम रूप में कहे गए हैं। उसमें किसी से मनवाने का आग्रह नहीं है, मात्र बताने की बात है।

शिव के ये वचन अति संक्षिप्त हैं, सूत्र रूप में हैं। लेकिन, शिव का प्रत्येक सूत्र एक वेद की, एक बाइबिल की, एक कुरान की हैसियत का है। उनका एक अकेला वाक्य एक महान शास्त्र का, धर्मग्रंथ का आधार बन सकता है। विज्ञान भैरव तंत्र का अर्थ ही है- चेतना के पार जाने की विधि।
■ ओशो

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