यहां बसे हैं जग के नाथ - Kashi Patrika

यहां बसे हैं जग के नाथ

विलक्षण ही नहीं, अलौकिक भी है जगत के नाथ श्रीकृष्ण की पुरी॥

जहां ईश्वर का वास होता है, वहां नैसर्गिकता स्वत: रच बस जाती है। इसका भान चार धाम में शुमार जग के नाथ श्रीकृष्ण की पुरी यानी जगन्नाथपुरी पहुंचते ही हो जाता है। विश्व के सबसे बड़े समुद्री तट पर बसे जगन्नाथजी का अलौकिक दर्शन ही अपने आप में इतना पूर्ण है कि उसे शब्दों में पिरोना कठिन है।  है। करीब चार लाख वर्ग फुट में, चहारदीवारी से घिरे इस विशाल मंदिर के द्वार से ही परिसर की भव्यता का भान हो जाता है। उड़िया शैली की स्थापत्य एवं शिल्पकला के अनूठे संगम ने समूचे परिसर को अनुपम बना दिया है। वक्राकार मंदिर के शिखर पर श्रीविष्णु का आठ आरों वाला चक्र मंडित है, जिसे नील चक्र भी कहते हैं। अष्टधातु से बने इस चक्र को पवित्रतम माना जाता है। 214 फुट ऊंचे मंदिर का प्रमुख ढांचा एक पाषाण चबूतरे पर स्थापित है, जो बाहर से बीस फुट ऊंची चहारदीवारी से घिरा हुआ है।

जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति
भीतर गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ, बड़े भ्राता बलभद्र और बहन सुभद्रा की दिव्य प्रतिमा स्थापित हैं, जिनके दर्शन मात्र से आत्मा तृप्त हो जाती है, ऐसा लगता है मानो जगन्नाथजी भक्तों को मुस्कुराते हुए आत्मसात कर रहे हों। यदि आत्मा-परमात्मा का मिलन मानते हों, तो उसकी अनुभूति यहां सहज ही की जा सकती है। कहते हैं यदि कोई यहां तीन दिन व रात ठहर जाए, तो वह जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।

...इसलिए अधूरी है मूर्ति
पौराणिक कथाओं के अनुसार जगन्नाथजी की मूल मूर्ति एक अंजीर वृक्ष के नीचे मिली, जो इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित थी। इसकी चकाचौंध से धर्म ने इसे पृथ्वी में छिपाना चाहा, लेकिन मालवा नरेश इंद्रद्युम्न के स्वप्न में मूर्ति दिखाई दी। फिर राजा ने कठिन तप किया, तो श्रीहरि विष्णु ने बताया कि वह पुरी के तट पर जाएं, जहां एक दारु लकड़ी का लट्ठा मिलेगा और उससे मूर्ति निर्माण कराएं। राजा ने ऐसा ही किया, लट्ठा मिलने पर विष्णुजी और विश्वकर्माजी कारीगर और मूर्तिकार बन राजा के पास पहुंचे और शर्त रखी कि एक माह में मूर्ति तैयार करेंगे, लेकिन इस बीच वे बंद कमरे में रहेंगे और कोई भीतर नहीं आए। समय सीमा समाप्त होने पर कई दिनों तक कोई आवाज नहीं आई, तो राजा ने उत्सुकतावश कमरे में झाका। फिर वृद्ध कारीगर बाहर आया और कहा कि मूर्तियां अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने हैं। राजा के दुखी होने पर मूर्तिकार ने बताया कि यह सब दैववश हुआ है और मूर्तियों को ऐसे ही स्थापित कर पूजा जाए, तभी से प्रभु जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां मंदिर में स्थापित हैं।

कथाओं में बौद्ध स्तूप का वर्णन
कुछ लोगों का मानना है कि यहां पहले बौद्ध स्तूप था, जिसमें गौतम बुद्ध का एक दांत रखा था। बाद में इसे श्रीलंका पहुंचा दिया गया। दसवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म को वैष्णव संप्रदाय ने आत्मसात कर लिया, तब जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता हासिल की। वहीं, गंग वंश काल के ताम्रपत्रों से पता चलता है कि जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कलिंग राजा अनंतवर्मन चोड गंगदेव ने शुरू कराया था, जिनके शासनकाल (1078-1148) में मंदिर के जगमोहन और विमान भाग बने थे। बाद में उडिय़ा शासक अनंग भीमदेव ने 1174 में मंदिर को वर्तमान रूप दिया। कहते हैं ब्रिटिशकाल में सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर को कई टन स्वर्ण दान किया, साथ ही वसीयत में उन्होंने बहुमूल्य कोहिनूर हीरा भी मंदिर को लिखा। बाद में अंग्रेजों ने पंजाब पर अधिकार कर लिया, नहीं तो कोहिनूर भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता। मंदिर परिसर का सबसे बड़ा आकर्षण यहां की विशाल रसोई है, जो भारत की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है, यहां भगवान को चढऩे वाले महाप्रसाद को तैयार करने में पांच सौ रसोइए तथा तीन सौ सहायक सहित करीब एक हजार लोग काम करते हैं।

रथयात्रा है विश्व प्रसिद्ध

आषाढ़ शुक्लपक्ष की द्वितीया को आयोजित होने वाली रथयात्रा विश्व प्रसिद्ध है, जिसे देखने संसार के कोने-कोने से श्रद्धालुओं का जमघट यहां लगता है। नौ दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में जगन्नाथ मंदिर की तीनों दिव्य प्रतिमाएं विशाल एवं भव्य रथों पर सुसज्जित हो नगर भ्रमण पर निकलती हैं। इस दौरान 45।6 फुट ऊंचे नंदीघोष नामक रथ पर प्रभु जगन्नाथ, 45 फुट ऊंचे तालध्वज नामक रथ पर भगवान बलभद्र तथा 44।6 फुट ऊंचे दर्पदलन नामक रथ पर देवी सुभद्रा नगर की सैर पर निकलते हैं। देवों को लाने के लिए इन विशाल रथों को मंदिर के बाहर परंपरानुसार खड़ा करते हैं, जिसे पहंडी बीजे कहते हैं। गजपति स्वर्णिम झाड़ू से सफाई करता है।
रथयात्रा जगन्नाथ मंदिर से आरंभ हो दो किमी दूर गुंडिचा मंदिर पहुंचकर समाप्त मानी जाती है। पर्व काल में तीनों प्रतिमाएं गुंडिचा मंदिर में सात दिनों तक विश्राम करते हैं, फिर वापस उन्हें मुख्य मंदिर में लाया जाता है।
रथयात्रा कब से शुरू हुई, इसका कोई मूल साक्ष्य नहीं है, लेकिन मान्यता है कि यह मध्यकाल से ही मनाया जाता है, साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों में वैष्णव कृष्ण मंदिरों में भी रथयात्रा मनाते हैं। वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा होने के कारण गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिए इसका खासा महत्व है, क्योंकि इस संप्रदाय के संस्थापक चैतन्य महाप्रभु भगवान जगन्नाथ की ओर आकर्षित हो कई वर्षों तक पुरी में भी रहे थे। रथयात्रा पर्व में श्रद्धालु रथ को हाथों से खींचकर अपने आराध्य को नगर दर्शन कराते हैं। इस दौरान रथों को विविध रंगों से सजाते हैं, जो प्रत्येक मूर्ति के महत्व को दर्शाते हैं।

नवकाले: धार्मिक अनुष्ठान
नवकाले बाड़ा एक धार्मिक अनुष्ठान है, जिसमें मंदिर की तीनों दिव्य प्रतिमाओं का स्वरूप बदला जाता है, जिसके तहत विधिविधान से 'दारु (लकड़ी) को मंदिर में लाते हैं तथा चंदन-नीम की लकड़ी से कड़े धार्मिक कर्मकांड द्वारा मूर्तियों को सुगंधित किया जाता है। कहते हैं इस दौरान 21 दिन व रात के लिए स्वयं विश्वकर्मा मंदिर में प्रवेश कर मूर्तियों को अंतिम रूप देते हैं। इसके बाद पहले ब्रह्मा को प्रवेश कराकर फिर विधिविधान से मूर्तियों को यहां विराजमान कराते हैं। नवंबर में होने वाले इस पर्व के दौरान उड़ीसा की शिल्पकला, विविध व्यंजन व सांस्कृतिक संध्याएं विशेष आकर्षण होते हैं।

यहां श्रीराम ने स्थापित किया था शिवलिंग
पुरी में जगन्नाथधाम और रथयात्रा के अलावा भी बहुत कुछ दर्शनीय है, जिसमें यहां का लोकनाथ मंदिर भी शामिल है। लोगों का विश्वास है कि प्रभु श्रीराम ने इस स्थान पर अपने हाथों से शिवलिंग की स्थापना की थी। साथ ही, बालीघाई तथा सत्याबादी भी पुरी के प्रमुख धार्मिक स्थलों में शुमार हैं। इस छोटे किंतु विलक्षण स्थान की सभ्यता एवं संस्कृति का भी कोई सानी नहीं है, कलाकारों के लिए तो मानो यह नगरी स्वर्ग से कम नहीं है। यहां के कलाकार समुद्र की रेत को कोई भी आकृति प्रदान करने के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध हैं। यहां का शंकराचार्य महाराज का आश्रम देश के कोने कोने मेें आस्था, विश्वास, धर्म, अध्यात्म व ध्यान की अलख जगाए हुए है।
काशी पत्रिका

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