काशी सत्संग: काल करे सो आज कर - Kashi Patrika

काशी सत्संग: काल करे सो आज कर


एक बार की बात है कि एक शिष्य अपने गुरु का बहुत आदर-सम्मान किया करता था और गुरु भी अपने इस शिष्य से बहुत स्नेह करते थे। लेकिन वह शिष्य अपने अध्ययन के प्रति आलसी और स्वभाव से दीर्घसूत्री था। सदा स्वाध्याय से दूर भागने की कोशिश  करता तथा आज के काम को कल के लिए छोड़ दिया करता था। गुरुजी कुछ चिंतित रहने लगे कि कहीं उनका यह शिष्य जीवन-संग्राम में पराजित न हो जाये। आलस्य में व्यक्ति को अकर्मण्य बनाने की पूरी सामर्थ्य होती है। ऐसा व्यक्ति बिना परिश्रम के ही फलोपभोग की कामना करता है। वह शीघ्र निर्णय नहीं ले सकता और यदि ले भी लेता है,तो उसे कार्यान्वित नहीं कर पाता। यहाँ तक कि  अपने पर्यावरण के प्रति भी सजग नहीं रहता है और न भाग्य द्वारा प्रदत्त सुअवसरों का लाभ उठाने की कला में ही प्रवीण हो पता है।

उन्होंने मन ही मन अपने शिष्य के कल्याण के लिए एक योजना बना ली। एक दिन एक काले पत्थर का एक टुकड़ा उसके हाथ में देते हुए गुरु जी ने कहा–‘मैं तुम्हें यह जादुई पत्थर का टुकड़ा, दो दिन के लिए दे कर, कहीं दूसरे गाँव जा रहा हूँ। जिस भी लोहे की वस्तु को तुम इससे स्पर्श करोगे, वह स्वर्ण में परिवर्तित हो जायेगी| पर याद रहे कि दूसरे दिन सूर्यास्त के पश्चात मैं इसे तुमसे वापस ले लूँगा।’ शिष्य इस सुअवसर को पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ, लेकिन आलसी होने के कारण उसने अपना पहला दिन यह कल्पना करते-करते बिता दिया कि जब उसके पास बहुत सारा स्वर्ण होगा, तब वह कितना प्रसन्न, सुखी, समृद्ध और संतुष्ट रहेगा। इतने नौकर-चाकर होंगे कि उसे पानी पीने के लिए भी नहीं उठाना पड़ेगा।

फिर दूसरे दिन जब वह प्रातःकाल जागा, उसे अच्छी तरह से स्मरण था कि आज स्वर्ण पाने का दूसरा और अंतिम दिन है। उसने मन में पक्का विचार किया कि आज वह गुरूजी द्वारा दिए गये काले पत्थर का लाभ ज़रूर उठाएगा। उसने निश्चय किया कि वो बाजार से लोहे के बड़े-बड़े सामान खरीद कर लायेगा और उन्हें स्वर्ण में परिवर्तित कर देगा। दिन बीतता गया, पर वह इसी सोच में बैठा रहा की अभी तो बहुत समय है, कभी भी बाजार जाकर सामान लेता आएगा। उसने सोचा कि अब तो  दोपहर का भोजन करने के पश्चात ही सामान लेने निकलूंगा, पर भोजन करने के बाद उसे विश्राम करने की आदत थी, उसने थोड़ी देर आराम करना उचित समझा।  आलस्य से परिपूर्ण उसका शरीर नींद की गहराइयों में खो गया, और जब वो उठा तो सूर्यास्त होने को था।

अब वह जल्दी-जल्दी बाजार की तरफ भागने लगा, पर रास्ते में ही उसे गुरूजी मिल गए। उनको देखते ही वह उनके चरणों पर गिरकर, उस जादुई पत्थर को एक दिन और अपने पास रखने के लिए याचना करने लगा। गुरुजी नहीं माने और उस शिष्य का धनी होने का सपना चूर-चूर हो गया। इस घटना की वजह से शिष्य को एक बहुत बड़ी सीख मिल गयी; उसे अपने आलस्य पर पछतावा होने लगा, वह समझ गया कि आलस्य उसके जीवन के लिए एक अभिशाप है और उसने प्रण किया कि अब वो कभी भी काम से जी नहीं चुराएगा और एक कर्मठ, सजग और सक्रिय व्यक्ति बन कर दिखायेगा। जीवन में हर किसी को एक से बढ़कर एक अवसर मिलते हैं, पर कई लोग इन्हें बस अपने आलस्य के कारण गवां देते हैं। कबीर दास जी ने समय की महत्ता को समझाते हुए, बहुत अच्छी बात कही है...
काल करे सो आज कर, 
आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी,
बहुरि करेगा कब॥
ऊं तत्सत...

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