कुछ इशारे थे जिन्हें, दुनिया समझ बैठे थे हम,
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम।
रफ्ता रफ्ता गैर अपनी ही नजर में हो गये,
वाह री गफ्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम।
होश की तौफीक भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी,
इश्क में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम।
बेनियाजी को तेरी पाया सरासर सोज-ओ-दर्द,
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम।
भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज अहद-ए-दोस्ती,
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम।
हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फिराक'
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम।
■ फिराक गोरखपुरी
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