बेबाक हस्तक्षेप - Kashi Patrika

बेबाक हस्तक्षेप

“सोच बदलो, देश बदलेगा” यह महज एक जुमला बनकर ही रह जाएगा, क्योंकि न सोच बदल रही है, न देश। उसमें भी आँखों पर यदि धर्म का चश्मा लगा हो, तो साफ दिखने वाली चीजें भी धुंधली पड़ जाती हैं और रूढ़ियों में जकड़ा समाज टस से मस नहीं होना चाहता है। ताजा मामला उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में स्थित महाभारत कालीन मंदिर से जुड़ा है।
जिले के मुस्करा खुर्द गांव में भाजपा विधायक मनीषा अनुरागी प्राथमिक विद्यालय में परिधान वितरण कार्यक्रम में शामिल होने गई थीं। वहीं कुछ लोगों ने उन्हें मंदिर के बारे में बताया तो वे वहां पूजा करने चली गईं। बवाल यहीं से शुरू हुआ, मान्यता के मुताबिक इस मंदिर में किसी भी महिला के जाने पर पाबंदी है, क्योंकि गांव वालों का मानना है कि इससे गांव में सूखा और अकाल की स्थिति आ जाएगी। फिर क्या था, भाजपा विधायक के जाने के बाद मंदिर और पूरे परिसर को गंगाजल से धुलवा कर कथित रूप से शुद्ध किया गया और आपस में चंदा जुटाकर मंदिर की एक मूर्ति को इलाहाबाद के संगम में ‘पवित्र स्नान’ कराने के लिए भेजा गया। यह सब कुछ लोगों को अजीब लग सकता है, लेकिन देश में धर्म और आस्था को लेकर सोच इतनी संकुचित न होती तो सबरीमाला, शनि शिगनापुर जैसे मंदिरों में प्रवेश की अनुमति के लिए महिलाओं को कोर्ट की शरण में नहीं जाना पड़ता। बहरहाल, केरल के सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देते हुए कहा कि अनुच्छेद 25 के तहत महिलाओं का प्रार्थना करना संवैधानिक अधिकार है।  मगर विडंबना यह है कि संवैधानिक प्रावधानों और कोर्ट के आदेश से ऐसी सोच को नहीं बदला जा सकता है।
सवाल यह भी उठता है कि वह ईश्वर जिसके दर्शन-सुमिरण मात्र से इन्सान पवित्र हो जाता है, वह परमपिता किसी भी कारण से अपवित्र कैसे हो सकता है! आज की बात नहीं, सैकड़ों वर्ष पहले कबीर, नानक, रविदास, राजा राममोहन राय... जाने कितने ही संत और समाज सुधारकों ने समय-समय पर समाज में व्याप्त कुरीतियों को, छुआछूत को मिटाने का प्रयास किया, लेकिन आज भी डिजिटल इंडिया का एक बड़ा हिस्सा उन्हीं परम्पराओं को ढो रहा है, जिसमें भेदभाव या छुआछूत के लिए जगह बनी रहे। परिणामतः सिर्फ महिलाओं, दलितों को लेकर भेदभाव का मामला सामने आता रहता है। रूढ़िवादिता का यह चेहरा सिर्फ रोक-टोक तक की सीमित नहीं है, बल्कि भीड़ द्वारा गौरक्षा के नाम पर होने वाली हत्याएं इसी मानसिकता की हिंसक परिणति है, जिसे बदलना आसान नहीं लगता, क्योंकि डिजिटल यानी प्रगतिशील दिखने वाला भारत भी इसका पक्षधर दिख रहा है।
■ संपादकीय

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