चुनावों से पहले सत्ता पक्ष और विपक्ष किस प्रकार से एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं, ये अब एक आम बात हो चली है। जिस संख्या बल का वोट प्रतिशत सबसे ज्यादा होता है, उससे जुड़े मुद्दे सबसे ऊपर होते हैं। पर चुनावों के बाद मुद्दों को ठंढे बस्ते में डाल दिया जाता है। ऐसा ही कुछ बुधवार को सदन में दिखाई पड़ा, जब सदन में किसानों से जुड़े मुद्दों पर बहस शुरू हुई। पूरी बहस के दौरान केवल 15% सांसद ही सदन में मौजूद थे, जो सदन को चलाने के लिए न्यूनतम संख्या भी है।
हाल ही में विपक्ष ने किसानों के मुद्दों को लेकर पूरे देश में अभियान चलाया था। अभियान के दौरान कई बार सरकार और विपक्ष सदन के बाहर आमने-सामने भी दिखाई पड़े। पूरे देश में कई स्थानों पर विरोध-प्रदर्शन भी हुए। पर अब जब मामला सदन के भीतर बैठकर किसानों के लिए बनी नीतियों को सही करने का आया, तो सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने सदन से नदारत रहकर यह दिखा दिया कि उन्हें किसानों की कितनी फिक्र है।
बुधवार तकरीबन ढाई बजे जब लोकसभा की कार्रवाई शुरू हुई, तो मुद्दा था बाढ़ और सूखे से किसानों को हुए नुकसान का। उस समय सदन में केवल 61 संसद मौजूद थे, 24 विपक्ष के और 37 सत्ता पक्ष के।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि दिखावे की राजनीति के आधार पर भारत में सरकारें बनती और बिगड़ती रहती हैं। किसानों से जुड़े मुद्दों को गंभीरता से न लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष ने यह साबित कर दिया है कि सदन के बाहर का शोरशराबा सिर्फ दिखावा होता है और समय जब नीतियों को सही करने और उन पर बहस करने का आता है, तो सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों नदारत हो जाते हैं। ऐसा ही हाल रहा तो लोगों का लोकतन्त्र से विश्वास उठता जाएगा और इसके लिए जनता से ज्यादा भारत की राजनीति जिम्मेदार होगी, जो लोगों के हक़ के लिए शासन का वादा तो करती हैं पर कार्य नहीं करती।
■ संपादकीय
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