यूपी की ‛बदनाम’ लेखिका - Kashi Patrika

यूपी की ‛बदनाम’ लेखिका

जन्मदिन विशेष: पुरुष समाज से महिला के हक की आजादी छीन लेने वाली इस्मत चुगताई का नाम आज भी बोल्ड महिलाओं में शुमार है, जिन्होंने नंगे-सच से लेकर कड़वे सच तक को अपनी लेखनी से उघाड़ कर रख दिया। यूपी में जन्मीं इस्मत चुगताई ने दुनिया से विदा होते हुए भी रूढ़ीवादी सोच पर प्रहार किया और इस मुस्लिम लेखिका को दफन करने की बजाय जलाया गया...

समाज की जिन बन्दिशों को पार कर पुरुष सत्ता के समक्ष खड़ा होने की हिम्मत आज भी बहुत कम औरतें जुटा पाती हैं। ऐसे में, 1912 के रूढ़ीवादी युग में इस्मत चुगताई ने अपनी बेबाक अभिव्यक्ति से उर्दू कथा साहित्य में अपनी अलग पहचान बनाई। इस्मत चुगताई जितनी बिंदास अपनी असली जिंदगी में थीं, उतनी ही अपनी लेखनी में भी रहीं। उनकी कृतियों में मानवीय करुणा और सक्रिय प्रतिरोध का दुर्लभ सामंजस्य है, जिसकी बिना पर उनकी सर्जनात्मक प्रतिमा की एक विशिष्ट पहचान बनती है। इस्मत चुगताई शुरुआत से ही प्रगतिशील साहित्यांदोलन से जुडी रहीं और जब जरूरत हुई, उन्होंने कंधे से कंधा मिलाकर काम किया, लेकिन कभी खुद को तरक्की पसन्द कहलाने का आग्रह नहीं किया। आन्दोलन के पहले उभार के दौरान प्रगतिशील लेखकों के उर्दू मुख-पत्र ‘नया अदब’ में प्रकाशित उनकी कहानियों के जरिए प्रगतिशील कथालेखन का एक नया रुजहान सामने आया। उन्होंने प्रगतिशील कथा-आलोचना के प्रतिमानों के सामने चुनौती खड़ी कर दी।

लेडी मंटो
‛इस्मत-आपा’ के नाम से लोकप्रिय इस्मत चुगतई की तुलना ख्यातलब्ध लेखक मंटो से की जाती है। मंटो स्वयं भी इसकी वकालत करते हैं। वे लिखते हैं, “अगर इस्मत आदमी होती तो वह मंटो होती और अगर मैं औरत होता तो इस्मत होता।”
यही नहीं, मंटो ने इस्मत की लेखनी को लेकर भी काफी सटीक लिखा है, जो उनके थॉट प्रोसेस और लेखनी को बखूबी जाहिर कर देती है, “इस्मत की कलम और जुबान दोनों तेज चलते हैं। जब वे लिखना शुरू करती हैं, तो उनकी सोच आगे निकलने लगती है और शब्द उनसे तालमेल नहीं बिठा पाते। जब वे बोलती हैं तो उनके शब्द एक के ऊपर एक चढ़ जाते हैं। अगर वे किचन में चली जाएं, तो हर ओर तबाही आ जाए। वे इतना तेज सोचती हैं कि आटा गूंधने से पहले ही दिमाग में चपाती बना लेती हैं। अभी आलू छिले भी नहीं और उनकी कल्पना में सब्जी बन चुकी होती है।”

पहली कहानी, और अजीब इत्तेफाक
उनके बड़े भाई मिर्जा अजीम बेग चुगताई उर्दू के बड़े लेखक थे, जिस वजह से उन्हें अफसाने पड़ने का मौका मिला। उन्होंने चेखव, ओ’हेनरी से लेकर तोलस्तॉय और प्रेमचंद तक सभी लेखकों को पढ़ डाला। उनका पश्चिम में लिखे गए अफसानों से गहरा जुड़ाव रहा। इस्मत आपा ने 1938 में लखनऊ के इसाबेला थोबर्न कॉलेज से बी.ए. किया। कॉलेज में उन्होंने शेक्सपीयर से लेकर इब्सन और बर्नाड शॉ तक सबको पढ़ डाला।
23 साल की उम्र इस्मत आपा को लगा कि अब वे लिखने के लिए तैयार हैं। उनकी कहानी के साथ बड़ा ही दिलचस्प वाकया पेश आया। उनकी कहानी उर्दू की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘साकी’ में छपी, कहानी थी ‘फसादी’। पाठक इस्मत से वाकिफ थे नहीं, इसलिए उन्हें लगा कि आखिर मिर्जा अजीम ने अपना नाम क्यों बदल लिया है, और इस नाम से क्यों लिखने लगे।

निजी जीवन
इस्मत आपा का जन्म अगस्त, 1915 में यूपी के बदायूं के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। उनके पिता जज थे। दस भाई बहन में इस्मत आपा का नौवां नंबर था। छह भाई और चार बहनें। पिता सरकारी महकमे में थे, तो  उनका तबादला जोधपुर, आगर, अलीगढ़ में होता रहता, जिस वजह से परिवार को जल्दी-जल्दी घर बदलना पड़ता। इस्मत आपा का जीवन इन सब जगहों पर गुजरा। सारी बहनें उम्र में बड़ी थीं, तो जब तक वे बड़ी होतीं उनकी शादी हो गई। ऐसे में, बहनों का साथ कम और भाइयों का साथ उन्हें ज्यादा मिला। अब लड़कों के साथ रहना तो उनकी जैसी हरकतें और आदतें सीखना भी लाजिमी था। इस तरह इस्मत आपा बिंदास हो गईं और हर वह काम करतीं जो उनके भाई करते, जैसे- फुटबॉल से लेकर गिल्ली डंडा तक खेलना। इस तरह उनके बिंदास व्यक्तित्व का निर्माण हुआ, जिसकी झलक उनकी लेखनी में देखने को मिली। आधुनिक उर्दू अफसानागोई के चार आधार स्तंभ माने जाते हैं, जिनमें मंटो, कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी और चौथा नाम इस्मत चुगताई का आता है।

'लिहाफ' पर केस 
इस्मत आपा बी.ए. और बी.टी (बैचलर्स इन एजुकेशन) करने वाली पहली मुस्लिम महिला थीं। उन्होंने 1942 में शाहिद लतीफ (फिल्म डायरेक्टर और स्क्रिप्टराइटर) से निकाह कर लिया। लेकिन शादी से दो महीने पहले ही उन्होंने अपनी सबसे विवादास्पद कहानी ‘लिहाफ’ लिख ली थी। कहानी लिखने के दो साल बाद इस पर अश्लीलता के आरोप लगे। यह कहानी एक हताश गृहिणी की थी, जिसके पति के पास समय नहीं है और यह औरत अपनी महिला नौकरानी के साथ में सुख पाती है। हालांकि दो साल तक चले केस को बाद में खारिज कर दिया गया।

पुरुषों की दुनिया में “मर्दानी” 
दरअसल पुरुष समाज को इस्मत आपा हजम नहीं हो पातीं थीं। इसकी एक मिसाल उनकी जीवनी ‘कागजी पैराहन’ के उस अंश को पढ़कर पाठक लगा सकते हैं, जिसमें उन्होंने एम. असलम साहब का जिक्र किया है, जो खुद भी कहानीकार थे, लेकिन इस्मत आपा के लेखन से काफी नाराज थे।
इस्मत लिखती हैं, ‘शाहिद साहब (पति) के साथ मैं भी एम. असलम साहब के यहां ठहर गई। सलाम-दुआ भी ठीक से नहीं होने पाई थी कि उन्होंने मुझे झाड़ना शुरू कर दिया। मेरी उरियां-निगारी (बेपर्दा-वृतांत) पर बरसने लगे। मुझ पर भी भूत सवार हो गया। शाहिद साहब ने बहुत रोका, लेकिन मैं उलझ पड़ी।’

‘और आपने जो ‘गुनाह की रातें’ में इतने गंदे-गंदे जुमले लिखे हैं! बाकायदा सेक्स-एक्ट की तफसील (विस्तार) बताई है। सिर्फ चटखारे के लिए।’

‘मेरी और बात है। मैं मर्द हूं।’

‘तो इसमें मेरा क्या कुसूर?’

‘क्या मतलब?’ वो गुस्से से सुर्ख हो गए।

‘मतलब ये कि आपको खुदा ने मर्द बनाया इसमें मेरा कोई दखल नहीं, और मुझे औरत बनाया इसमें आपका कोई दखल नहीं। आप जो चाहते हैं वह सब लिखने का हक आपने मुझसे नहीं मांगा, न मैं आजादी से लिखने का हक आपसे मांगने की जरूरत समझती हूं।’

‘आप एक शरीफ मुसलमान खानदान की तालीमयाफ्ता (पढ़ी-लिखी) लड़की हैं।’

‘और आप भी तालीमयाफ्ता हैं और मुसलमान खानदान से हैं।’

‘आप मर्दों की बराबरी करना चाहती हैं?’

‘हरगिज नहीं। क्लास में ज्यादा से ज्यादा नंबर पाने की कोशिश करती थी और अक्सर लड़कों से ज्यादा नंबर ले जाती थी।’
अब बताइए पुरुषों की दुनिया ऐसी मर्दानी को कैसे स्वीकार कर सकती है? इस्मत आपा के हौसले पर इसका कोई असर नहीं हुआ। वो एक जंग-जू सिपाही थीं और उनकी बंदूक, उनकी कलम थी। उन्होंने उपन्यास लेखन, कहानी और अफसाने लिखने में बड़ा नाम कमाया। लेखन की हर विधा, ड्रामे, खाके, रिपोर्ताज और लेख लिखे, फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट भी लिखी। यहां तक कि एक फिल्म (जुगनू) में अदाकारी के जौहर भी दिखाए।

फिल्मफेयर भी जीता
इस्मत आपा के पति फिल्मों से थे, इसलिए उन्होंने भी फिल्मों में हाथ आजमाया। ‘गरम हवा’ उन्हीं कहानी थी. इस फिल्म की कहानी के लिए उन्हें कैफी आजमी के साथ बेस्ट स्टोरी के फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया। उन्होंने श्याम बेनेगल की ‘जुनून (1979)’ में एक छोटा-सा रोल भी किया था।

मुख्य रचनाएँ
'लिहाफ', 'टेढ़ी लकीर', एक बात, कलियाँ, जंगली कबूतर, एक कतरा-ए-खून, दिल की दुनिया, बहरूप नगर, छुईमुई आदि।

पुरस्कार-उपाधि
'गालिब अवार्ड' (1974), 'साहित्य अकादमी पुरस्कार', 'इक़बाल सम्मान', 'नेहरू अवार्ड', 'मखदूम अवार्ड'।

दुनिया से विदाई भी विवादास्पद रही
24अक्तूबर, 1991 को उनका निधन मुंबई मे हो गया। लेकिन विवाद यहां भी कायम रहे। उनका दाह संस्कार किया गया, जिसका उनके रिश्तेदारों ने विरोध किया। हालांकि, कई ने कहा कि उनका वसीयत में ऐसा लिखा गया था।
■ काशी पत्रिका

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