मिट्टी हो कर इश्क किया है इक दरिया की रवानी से,
दीवार-ओ-दर माँग रहा हूँ मैं भी बहते पानी से।
बे-खबरी में होंठ दिए की लौ को चूमने वाले थे,
वो तो अचानक फूट पड़ी थी खुशबू रात की रानी से।
वो मजबूरी मौत है जिस में कासे को बुनियाद मिले,
प्यास की शिद्दत जब बढ़ती है डर लगता है पानी से।
दुनिया वालों के मंसूबे मेरी समझ में आए नहीं,
जिंदा रहना सीख रहा हूँ अब घर की वीरानी से।
जैसे तेरे दरवाजे तक दस्तक देने पहुँचे थे,
अपने घर भी लौट के आते हम इतनी आसानी से।
हम को सब मालूम है 'मोहसिन' हाल पस-ए-गिर्दाब है क्या,
आँख ने सच्चे गुर सीखे हैं सूरज की दरबानी से।
■ मोहसिन असरार



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