साहित्यिक झरोखा: विट्ठल भक्त “तुकाराम” - Kashi Patrika

साहित्यिक झरोखा: विट्ठल भक्त “तुकाराम”


संत तुकाराम (१६०८-१६५०), जिन्हें तुकाराम के नाम से भी जाना जाता है सत्रहवीं शताब्दी के एक महान संत कवि थे जो भारत में लंबे समय तक चले भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख स्तंभ थे। तुकाराम का जन्म पुणे जिले के अंतर्गत देहू नामक ग्राम में शके 1520; सन्‌ 1598 में हुआ। इन्हें 'तुकोबा' भी कहा जाता है। ये वारकरी संप्रदाय से जुड़े थे। तुकाराम को चैतन्य नामक साधु ने 'रामकृष्ण हरि' मंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया था। वे विट्ठल यानी विष्णु के परम भक्त थे। संत ज्ञानेश्वर द्वारा लिखी गई 'ज्ञानेश्रवरी' तथा श्री एकनाथ द्वारा लिखित 'एकनाथी भागवत' के बारकरी संप्रदायवालों के प्रमुख धर्मग्रंथ हैं। इस वांड्मय की छाप तुकाराम के अंभंगों पर दिखलाई पड़ती हैं। तुकाराम ने अपनी साधक अवस्था में इन पूर्वकालीन संतों के ग्रंथों का गहराई तथा श्रद्धा से अध्ययन किया। अपने जीवन के उत्तरार्ध में इनके द्वारा गाए गए तथा उसी क्षण इनके शिष्यों द्वारा लिखे गए लगभग 4000 'अभंग' आज उपलब्ध हैं।

तुका बस्तर बिचारा क्या करे रे,अन्तर भगवान होय ।भीतर मैला केंव मिटे रे,मरे उपर धोय ।।भावार्थ :तुकाराम कहते हैं कि बेचारे वस्त्र को बार-बार धोने से क्या होगा? भगवान बाहरी वस्त्र में नहीं, हृदय में निवास करते हैं। आन्तरिक मैल को कब मिटाओगे? सिर्फ़ बाहरी सफ़ाई से तो हम मर जाएँगे यानी सिर्फ़ बाहरी सफ़ाई से हमारा बचाव नहीं होगा।

आप तरे त्याकी कोण बराई। औरन कु भलो नाम धराई ।।धृ०।।काहे भूमि इतना भार राखे। दुभत धेनु नहिं दूध चाखे ।।१।।बरसते मेघ फलते है बिरखा । कौन काम आपनी उन्होति रखा ।।२।।काहे चन्दा सुरज खावे फेरा। खिन एक बैठ न पावत घेरा।।३।। काहे परिस कंचन करे धातु । नहिं मोल तुटत पावत धातु ।।४।।कहे तुका उपकार हि काज । सब कर रहिया रघुराज।।५।।भावार्थ : जो मनुष्य केवल अपना ही व्यक्तिगत उद्धार कर लेता है, उसका कौन सा बड़प्पन है इसमें ? दूसरों के लिए जो जीता है, वही भला कहलाता है। भूमि किसलिए दूसरों का इतना भार धारण करती है? अर्थात वह दूसरों के लिए स्वयं कष्ट सहती है। गाय अपने लिए दूध न रखकर दूसरों को दूध देती है। मेघ अपने लिए पानी न रखकर दूसरों के लिए बरसते हैं। इसी प्रकार वृक्ष दूसरों को अपने फल का दान करते हैं। चन्द्र और सूर्य एक क्षण भी विश्राम न लेते हुए दिन-रात चक्कर काटते रहते हैं। लोगे को पारस स्वर्ण रूप बना देता है, उसे वह अपने लिए नहीं रखता है। इस प्रकार तुकाराम कहते हैं कि सभी दूसरों के लिए जीते हैं, यही रघुराज (ईश्वर) की लीला है। अत: हमें भी इस रहस्य को समझकर दूसरों के हित जीना चाहिए । 

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