चुनावी मौसम करीब है और दावों-वादों की जमकर बरसात हो रही है, लेकिन दावों और उनकी जमीनी हकीकत का फासला कुछ ज्यादा ही बढ़ता जा रहा है। अन्य मसलों की तरह उच्च शिक्षा का स्तर भी चिंतनीय विषय बना हुआ है। मानव संसाधन विकास (एचआरडी) मंत्रालय द्वारा जारी ताजा आंकड़े बताते हैं कि देश भर में केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में संकाय सदस्यों के 5,606 से अधिक पद खाली है, जबकि प्रतिष्ठित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में ऐसी 2,806 रिक्तियां है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और भारतीय अभियांत्रिकी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान में 1870 पद खाली है, जबकि भारतीय प्रबंधन संस्थानों में 258 पद खाली है। इन रिक्तियों में शिक्षकों की बड़ी संख्या शामिल है। ये हाल सिर्फ दूरदराज ग्रामीण इलाकों का नहीं है, बल्कि दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय तक में प्राध्यापकों की भारी कमी है।
यूं तो, केंद्र सरकार भारतीय विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को विश्वस्तरीय बनाने का दावा करती है और इसके लिए एक अलग कोष भी बनाया गया है, लेकिन दावों की जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। देश के विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के खाली पद भरने का काम भले ही मंथर गति से हो रहा हो, लेकिन उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। इस मसले पर जारी वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात पहली बार पच्चीस फीसद से अधिक हुआ है और सरकार का लक्ष्य 2022 तक इसे तीस फीसद करने का लक्ष्य है। किंतु, इन विद्यार्थियों को पढ़ाने वाले शिक्षक नदारद हैं। सरकार शिक्षकों की नियुक्ति की प्रक्रिया काफी धीमी है, जो देखकर ऐसा लगता है कि भर्ती न के बराबर हो रही है। ऐसे में इन विश्वविद्यालयों में जाने वाले छात्र क्या पढ़ते होंगे!
सोचनीय विषय एक और है, अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वे की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक प्रति वर्ष पच्चीस हजार युवा पीएचडी उपाधि प्राप्त कर रहे हैं। इसके अलावा यूजीसी आइसीए और आइसीएस द्वारा आयोजित नेट परीक्षा में औसत पचास हजार युवा जेआरएफ या नेट परीक्षा पास करते हैं। राज्यों की सेट परीक्षा में पच्चीस से तीस हजार युवा सफल होते हैं। कुल मिला कर उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए हर साल करीब एक लाख दावेदार शिक्षक उपलब्ध होते हैं। अब यदि विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के पद रिक्त ही रखने हैं, तो बड़े स्तर पर इन छात्रों को पीएचडी या समकक्ष डिग्री देने का क्या अर्थ है। ये युवा बेरोजगार रह अपनी डिग्री को कोसते रहें और उधर विश्वविद्यालय में पढ़ने आए छात्र शिक्षकों के अभाव से जूझते हुए स्तरहीन पढ़ाई कर ग्रेजुएट होते रहे। दोनों तरफ से नुकसान उच्च शिक्षा के स्तर का हो रहा है। तिस पर निजी शिक्षण संस्थाओं की भारी-भरकम फीस का बोझ!!
यानी दावों-वादों की लिस्ट थामें शिक्षा से लेकर आर्थिक स्तर तक आम आदमी बस लाचार दिखता है और ऐसे में, फिर एक बार अपनी स्थिति बदलने की उम्मीद लिए उसके कदम मतदान केंद्र तक पहुंच जाते हैं।
■ संपादकीय
यूं तो, केंद्र सरकार भारतीय विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को विश्वस्तरीय बनाने का दावा करती है और इसके लिए एक अलग कोष भी बनाया गया है, लेकिन दावों की जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। देश के विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के खाली पद भरने का काम भले ही मंथर गति से हो रहा हो, लेकिन उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। इस मसले पर जारी वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात पहली बार पच्चीस फीसद से अधिक हुआ है और सरकार का लक्ष्य 2022 तक इसे तीस फीसद करने का लक्ष्य है। किंतु, इन विद्यार्थियों को पढ़ाने वाले शिक्षक नदारद हैं। सरकार शिक्षकों की नियुक्ति की प्रक्रिया काफी धीमी है, जो देखकर ऐसा लगता है कि भर्ती न के बराबर हो रही है। ऐसे में इन विश्वविद्यालयों में जाने वाले छात्र क्या पढ़ते होंगे!
सोचनीय विषय एक और है, अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वे की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक प्रति वर्ष पच्चीस हजार युवा पीएचडी उपाधि प्राप्त कर रहे हैं। इसके अलावा यूजीसी आइसीए और आइसीएस द्वारा आयोजित नेट परीक्षा में औसत पचास हजार युवा जेआरएफ या नेट परीक्षा पास करते हैं। राज्यों की सेट परीक्षा में पच्चीस से तीस हजार युवा सफल होते हैं। कुल मिला कर उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए हर साल करीब एक लाख दावेदार शिक्षक उपलब्ध होते हैं। अब यदि विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के पद रिक्त ही रखने हैं, तो बड़े स्तर पर इन छात्रों को पीएचडी या समकक्ष डिग्री देने का क्या अर्थ है। ये युवा बेरोजगार रह अपनी डिग्री को कोसते रहें और उधर विश्वविद्यालय में पढ़ने आए छात्र शिक्षकों के अभाव से जूझते हुए स्तरहीन पढ़ाई कर ग्रेजुएट होते रहे। दोनों तरफ से नुकसान उच्च शिक्षा के स्तर का हो रहा है। तिस पर निजी शिक्षण संस्थाओं की भारी-भरकम फीस का बोझ!!
यानी दावों-वादों की लिस्ट थामें शिक्षा से लेकर आर्थिक स्तर तक आम आदमी बस लाचार दिखता है और ऐसे में, फिर एक बार अपनी स्थिति बदलने की उम्मीद लिए उसके कदम मतदान केंद्र तक पहुंच जाते हैं।
■ संपादकीय


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