अटलजी यूं तो पूरे देश के थे और देश के हर हिस्से में लोग उन्हें याद कर रहे हैं, लेकिन लखनऊ का गली-मोहल्ला, चौक-चौराहा, घर-दुकान सब उनसे बिछड़कर खुदको सूना-उजाड़ महसूस कर रहा है। क्या हिंदू, क्या मुसलमान हर आंख में नम और जुबां खामोश है। लखनऊ के फिजा में जैसे एक सवाल तैर रहा है, ‛क्या फिर कभी अटल सरीखा कोई आएगा?
देशवासी ही नहीं यहां की माटी भी अपने प्रिय सपूत को डबडबाई आंखों से विदा कर रही है। अटलजी सरीखी हस्तियां विरले ही पैदा होती हैं। सफलता की ऊंचाइयों ने भी कभी उनमें रंच मात्र अहम नहीं भरा और उनकी इसी सरलता-सहजता ने विरोधियों को भी उनका कायल बना दिया। अटलजी का यूपी से गहरा नाता रहा है। लखनऊ से उन्होंने बतौर पत्रकार करियर की शुरुआत की।
यूपी से लोकसभा पहुंचे
अटल जी ने एमए की शिक्षा डीएवी कॉलेज कानपुर में ग्रहण की थी। 1957 में बलरामपुर से विजयी होकर वह पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे, लेकिन लखनऊ का उनके राजनीतिक जीवन में विशेष योगदान रहा, क्योंकि वे 1954 में लोकसभा के लिए एक उपचुनाव में जनसंघ उम्मीदवार के रूप में पहली बार लखनऊ से ही मैदान में उतरे थे। इसके बाद वे प्राय: सभी लोकसभा चुनाव में (1980 को छोड़कर जब भाजपा ने यह सीट जनता पार्टी के लिए समझौते में छोड़ दी थी) वे अन्य स्थानों के अलावा लखनऊ से भी उम्मीदवार हुआ करते थे। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने लोकसभा में लखनऊ संसदीय क्षेत्र का ही प्रतिनिधित्व किया। अटलजी लखनऊ से पांच बार सांसद रहे। उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र के विकास के लिए अविस्मरणीय कार्य किए थे। उन्होंने ही शहीद पथ, साइंटिफिक कन्वेशन सेंटर, लखनऊ की ज्यादातर सड़कों का चौड़ीकरण, गोमतीनगर विस्तार की योजना को मूर्त रूप दिया था। साथ ही गोमती नदी की सफाई के लिए पहली बार पोकलैंड मशीन का प्रयोग किया गया था। लखनऊ और कानपुर की लाईफ लाइन कही जाने वाले लोकल ट्रेन की शुरूआत भी अटल जी के जमाने में हुई थी, जिसमें आज हजारों यात्री रोजाना यात्रा करते हैं।
1947 में आए लखनऊ
लखनऊ के जनजीवन में स्वतंत्रता पूर्व से अभिन्न अंग बन गए थे। वे संघ के प्रचारक के रूप में 1942 में लखनऊ आए थे।अटल बिहारी बाजपेयी 1947 में ग्वालियर से लखनऊ आए। पीएचडी करने लखनऊ आए अटल की पीएचडी तो पूरी नहीं हुई, लेकिन वह सफल पत्रकार और राजनेता जरूर बन गए। उन्हें यहां सदर (उस समय) से प्रकाशित राष्ट्रधर्म पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी मिली। लखनऊ में कोई ठिकाना नहीं था इसलिए अटल कुछ समय अपने सहयोगी बजरंग शरण तिवारी के घर पर रहे। कुछ वक्त वह एसपी सेन रोड स्थित किसान संघ भवन में भी रुके। फिर अपने मित्र कृष्ण गोपाल कलंत्री के घर पर गन्ने वाली गली में रहे। सांसद बनने के बाद अटल काफी वक्त मीराबाई मार्ग के विधायक गेस्ट हाउस में रहे। बाद में उन्हें ला प्लास कॉलोनी में आवास आवंटित हो गया।
मासिक पत्रिका को दी ऊंचाई
आजादी से पहले भाऊराव देवरस और पं. दीन दयाल उपाध्याय ने लखनऊ से मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म प्रकाशित करने की योजना बनाई तो संपादक की तलाश शुरू हुई। तब अटल का नाम सामने आया। भाऊराव के कहने पर अटल पीएचडी छोड़ कर पत्र का संपादन करने लगे और 31 दिसंबर 1947 को राष्ट्रधर्म का पहला अंक आया। उस वक्त शायद ही किसी पत्र की 500 कॉपियां छपती हो, लेकिन राष्ट्रधर्म के पहले अंक की ही तीन हजार प्रतियां बाजार में आईं और हाथों-हाथ बिकीं। यह अटल के संपादन का ही चमत्कार था कि दूसरा अंक छपते-छपते प्रसार संख्या आठ हजार और तीसरे अंक तक 12 हजार पहुंच गई।
लखनऊ की ठंडई के थे मुरीद
अटलजी खान-पान के बेहद शौकीन थे। लखनऊ में चाट, पान खाने के लिए वे कभी भी निकल पड़ते थे। उन्हें ठंडई बहुत पसंद थी। खनऊ में एक ऐसी ठंडई की दुकान है, जो अटल जी के नाम से ही जानी जाती है। पुराने लखनऊ में राजा ठंडई के बारे में लोग कहते हैं कि अटल जी जब लखनऊ रहते थे, वहां जरूर जाते थे। वहां की ठंडई उन्हें इतनी पसंद थी कि लखनऊ आने के बाद वह वहां जरूर जाते थे।
यूपी से अटलजी के लगाव-जुड़ाव को देखते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह भी घोषणा की कि वाजपेयी के पैतृक स्थान बटेश्वर, शिक्षा क्षेत्र कानपुर, प्रथम संसदीय क्षेत्र बलरामपुर और कर्मभूमि लखनऊ में उनकी स्मृतियों को जिंदा रखने के लिए विशिष्ट कार्य किये जाएंगे। साथ ही उनकी अस्थियां हर जिले की पवित्र नदियों में प्रवाहित की जाएंगी।
■■
देशवासी ही नहीं यहां की माटी भी अपने प्रिय सपूत को डबडबाई आंखों से विदा कर रही है। अटलजी सरीखी हस्तियां विरले ही पैदा होती हैं। सफलता की ऊंचाइयों ने भी कभी उनमें रंच मात्र अहम नहीं भरा और उनकी इसी सरलता-सहजता ने विरोधियों को भी उनका कायल बना दिया। अटलजी का यूपी से गहरा नाता रहा है। लखनऊ से उन्होंने बतौर पत्रकार करियर की शुरुआत की।
यूपी से लोकसभा पहुंचे
अटल जी ने एमए की शिक्षा डीएवी कॉलेज कानपुर में ग्रहण की थी। 1957 में बलरामपुर से विजयी होकर वह पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे, लेकिन लखनऊ का उनके राजनीतिक जीवन में विशेष योगदान रहा, क्योंकि वे 1954 में लोकसभा के लिए एक उपचुनाव में जनसंघ उम्मीदवार के रूप में पहली बार लखनऊ से ही मैदान में उतरे थे। इसके बाद वे प्राय: सभी लोकसभा चुनाव में (1980 को छोड़कर जब भाजपा ने यह सीट जनता पार्टी के लिए समझौते में छोड़ दी थी) वे अन्य स्थानों के अलावा लखनऊ से भी उम्मीदवार हुआ करते थे। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने लोकसभा में लखनऊ संसदीय क्षेत्र का ही प्रतिनिधित्व किया। अटलजी लखनऊ से पांच बार सांसद रहे। उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र के विकास के लिए अविस्मरणीय कार्य किए थे। उन्होंने ही शहीद पथ, साइंटिफिक कन्वेशन सेंटर, लखनऊ की ज्यादातर सड़कों का चौड़ीकरण, गोमतीनगर विस्तार की योजना को मूर्त रूप दिया था। साथ ही गोमती नदी की सफाई के लिए पहली बार पोकलैंड मशीन का प्रयोग किया गया था। लखनऊ और कानपुर की लाईफ लाइन कही जाने वाले लोकल ट्रेन की शुरूआत भी अटल जी के जमाने में हुई थी, जिसमें आज हजारों यात्री रोजाना यात्रा करते हैं।
1947 में आए लखनऊ
लखनऊ के जनजीवन में स्वतंत्रता पूर्व से अभिन्न अंग बन गए थे। वे संघ के प्रचारक के रूप में 1942 में लखनऊ आए थे।अटल बिहारी बाजपेयी 1947 में ग्वालियर से लखनऊ आए। पीएचडी करने लखनऊ आए अटल की पीएचडी तो पूरी नहीं हुई, लेकिन वह सफल पत्रकार और राजनेता जरूर बन गए। उन्हें यहां सदर (उस समय) से प्रकाशित राष्ट्रधर्म पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी मिली। लखनऊ में कोई ठिकाना नहीं था इसलिए अटल कुछ समय अपने सहयोगी बजरंग शरण तिवारी के घर पर रहे। कुछ वक्त वह एसपी सेन रोड स्थित किसान संघ भवन में भी रुके। फिर अपने मित्र कृष्ण गोपाल कलंत्री के घर पर गन्ने वाली गली में रहे। सांसद बनने के बाद अटल काफी वक्त मीराबाई मार्ग के विधायक गेस्ट हाउस में रहे। बाद में उन्हें ला प्लास कॉलोनी में आवास आवंटित हो गया।
मासिक पत्रिका को दी ऊंचाई
आजादी से पहले भाऊराव देवरस और पं. दीन दयाल उपाध्याय ने लखनऊ से मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म प्रकाशित करने की योजना बनाई तो संपादक की तलाश शुरू हुई। तब अटल का नाम सामने आया। भाऊराव के कहने पर अटल पीएचडी छोड़ कर पत्र का संपादन करने लगे और 31 दिसंबर 1947 को राष्ट्रधर्म का पहला अंक आया। उस वक्त शायद ही किसी पत्र की 500 कॉपियां छपती हो, लेकिन राष्ट्रधर्म के पहले अंक की ही तीन हजार प्रतियां बाजार में आईं और हाथों-हाथ बिकीं। यह अटल के संपादन का ही चमत्कार था कि दूसरा अंक छपते-छपते प्रसार संख्या आठ हजार और तीसरे अंक तक 12 हजार पहुंच गई।
लखनऊ की ठंडई के थे मुरीद
अटलजी खान-पान के बेहद शौकीन थे। लखनऊ में चाट, पान खाने के लिए वे कभी भी निकल पड़ते थे। उन्हें ठंडई बहुत पसंद थी। खनऊ में एक ऐसी ठंडई की दुकान है, जो अटल जी के नाम से ही जानी जाती है। पुराने लखनऊ में राजा ठंडई के बारे में लोग कहते हैं कि अटल जी जब लखनऊ रहते थे, वहां जरूर जाते थे। वहां की ठंडई उन्हें इतनी पसंद थी कि लखनऊ आने के बाद वह वहां जरूर जाते थे।
यूपी से अटलजी के लगाव-जुड़ाव को देखते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह भी घोषणा की कि वाजपेयी के पैतृक स्थान बटेश्वर, शिक्षा क्षेत्र कानपुर, प्रथम संसदीय क्षेत्र बलरामपुर और कर्मभूमि लखनऊ में उनकी स्मृतियों को जिंदा रखने के लिए विशिष्ट कार्य किये जाएंगे। साथ ही उनकी अस्थियां हर जिले की पवित्र नदियों में प्रवाहित की जाएंगी।
■■



No comments:
Post a Comment