विशुद्ध राजनीति॥मुंबई में जब बेवजह किसी बात पर बहस हो और आपका दिमाग पूरी तरह थक जाए, तो अक्सर लोग कह उठते हैं, ‛दिमाग का दही’ हो गया...
दशकों से राजनीतिक उपेक्षा का शिकार पूर्वोत्तर में बसा ‛असम’ समय, काल, परिस्थितिवश इन दिनों सुर्खियों में है। ..और यहां के असली वाशिंदे कौन? की शिनाख्त करने वाली एनआरसी आम होते ही तकरीबन 40.07 लाख लोग अपनी पहचान को मोहताज हो गए। ये लोग आंखों में भविष्य की चिंता और दिलों में दर-बदर होने का डर लिए आगे क्या करें सोच ही रहे थे कि देश की सियासत में जैसे भूचाल आ गया और एनआरसी में नदारद लोगों के वोटों के लिए कोई इनका हिमायती बन गया, तो किसी ने घुसपैठिया करार देते हुए देश से निकाल बाहर करने का फरमान सुना दिया।
‛वोटों’ की रिश्तेदारी
पड़ोसी पश्चिम बंगाल को असम के इन 40 लाख लोगों का दर्द अपना लगा! जी नहीं, सिर्फ वोटों को अपनी तरफ समेटने की राजनीति शुरू हो गई। तभी तो, एनआरसी सामने आते ही इसमें ‛विशेष सम्प्रदाय’ को लक्ष्य करने की बात की जाने लगी और पक्ष-विपक्ष में जुबानी जंग भी ऐसी शुरू हुई कि ‛गृहयुद्ध’ तक की बात फिसलते देर न लगी। कुल मिलाकर, मुद्दे को अपने-अपने पक्ष में भुनाने एवं वोट बटोरने के लिए सभी सियासतदार ‛एनआरसी’ पर सिर्फ जुबान चला रहे हैं। नतीजतन, इस सूची में जिनके नाम नहीं हैं, उन्हें क्या करना चाहिए या आगे क्या होगा से ज्यादा राजनीतिक चर्चा गर्म है।
करोड़ों स्वाहा, हासिल क्या?
असम में नागरिकता का विवाद काफी पुराना है। 1985 में केंद्र सरकार, असम सरकार, आसू और AAGSP के बीच इस मामले को लेकर अकॉर्ड हुआ, लेकिन यह सालों लटकता चला गया। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। असम पब्लिक वर्क नाम के एनजीओ सहित कई अन्य संगठनों ने 2013 में इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। असम के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया था। 2015 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में यह काम शुरू हुआ और 2018 जुलाई में फाइनल ड्राफ्ट पेश किया गया।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक एनआरसी सूची तैयार करने में अब तक करीब 18 करोड़ डॉलर का खर्च आया है। इतनी बड़ी रकम खर्च करके तैयार यह सूची अभी अंतिम नहीं है। फिलहाल, जिनका नाम इसमें है उनके विरुद्ध भी किसी तरह की कोई सख्ती नहीं की जाएगी, ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने कहा है। राजनीतिक गलियारे में चर्चा का विषय यह है कि इस समय एनसीआर को सार्वजनिक कर आगामी लोकसभा चुनाव को साधने की कोशिश की जा रही है।
विकल्प अभी बाकी है
एनआरसी में जिन लोगों का नाम नहीं है उनके पास अपनी नागरिकता साबित करने का विकल्प अभी खुला है। इससे सम्बंधित आपत्तियां 30 अगस्त से 28 सितंबर के दौरान दायर की जा सकती हैं। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का मसौदा सात अक्तूबर तक जनता के लिये उपलब्ध रहेगा, ताकि वे देख सकें कि इसमें उनके नाम हैं या नहीं। केन्द्र की ओर से अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कहा कि दावों और आपत्तियों की प्रक्रिया के निष्पादन में संबंधित मंत्रालय मानक संचालन प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करने के लिये तैयार है। केंद्रीय गृह मंत्री ने भी आश्वस्त किया है कि जिनके नाम सूची में नहीं है उनके साथ किसी तरह का ज़ालिमाना बर्ताव नहीं किया जाएगा।
वोटिंग का हक बरकरार
एनआरसी में जिन लोगों का नाम अभी शामिल नहीं है, उन्हें भी फिलहाल मतदान का अधिकार है। इस सन्दर्भ में जानकारी देते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त ओ. पी. रावत ने बताया कि लोकसभा चुनाव से पहले यदि एनआरसी को अंतिम रूप नहीं भी दिया जाता है, तो वे लोग वोट डाल सकते हैं, जो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत मानदंड पूरा करते हैं यानी 18 साल की आयु के हैं। उन्होंने कहा, 'चुनाव आयोग का मतदाता नामांकन कार्य एनआरसी से अलग है. अंतिम रूप से मतदाता सूची 4 जनवरी, 2019 को प्रकाशित की जाएगी, जो आम चुनाव के लिए इस्तेमाल की जाएगी।'
कांग्रेस को हर्ज क्या!
पूर्वोतर राज्य असम में असमिया और ग़ैर-असमिया का मुद्दा दशकों पुराना है और इस पर न सिर्फ 70 के दशक में व्यापक आंदोलन हुआ, बल्कि लाखों लोगों
की जानें भी गई हैं- 1983 का नेल्ली जनसंहार में एक ही जिले में कम से कम तीन हजार मुसलमानों का क़त्ल कर दिया गया था, जिसमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे।
इसी सिलसिले में 1985 में राजीव गांधी की केंद्र सरकार, असम हुकूमत और आंदोलनकारी संगठन ऑल असम स्टूडेंस यूनियन के नेताओं के बीच समझौता हुआ जिसमें गैर-क़ानूनी घुसपैठियों की पहचान करने की शर्त शामिल थी। एनआरसी सूची तैयार करने का काम 2010 में शुरू हुआ, तब राज्य में कांग्रेस की तरुण गोगोई सरकार हुआ करती थी। हालांकि, पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर दो जिले में शुरू किए गए नागिरक रजिस्टर के काम को वहां हुई हिंसा के बाद बंद कर दिया गया, जिसमें छह लोगों की मौत हो गई थी। एनआरसी का काम फिर से 2015 में शुरू हुआ।
बांग्लादेश ने खड़े किए हाथ
अगर मान लिया जाए कि एनआरसी की फाइनल सूची आगामी सितंबर तक तैयार भी हो गई, तो इससे नदारद लोगों को बांग्लादेश भेजना आसान होगा क्या? एनआरसी के मुद्दे पर प्रतिक्रिया देते हुए बंग्लादेश के सूचना प्रसारण मंत्री हसानुल हक इनू ने कहा कि पिछले 48 सालों में किसी भी भारतीय सरकार ने बांग्लादेश के साथ अवैध प्रवास का मुद्दा नहीं उठाया है। इन लोगों का बांग्लादेश के साथ कोई लेना-देना नहीं है। आप सभी बांग्ला बोलने वाले लोगों को बांग्लादेश से नहीं जोड़ सकते हैं।
बहरहाल, आगामी लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एनआरसी का सामने आना सियासत के सिवा और कुछ नहीं लगता। तभी, इसके सार्वजनिक होते ही वह कांग्रेस भी विरोध का राग अलापने लगी, जो इसकी सूत्रधार रही है।
■ सोनी सिंह
दशकों से राजनीतिक उपेक्षा का शिकार पूर्वोत्तर में बसा ‛असम’ समय, काल, परिस्थितिवश इन दिनों सुर्खियों में है। ..और यहां के असली वाशिंदे कौन? की शिनाख्त करने वाली एनआरसी आम होते ही तकरीबन 40.07 लाख लोग अपनी पहचान को मोहताज हो गए। ये लोग आंखों में भविष्य की चिंता और दिलों में दर-बदर होने का डर लिए आगे क्या करें सोच ही रहे थे कि देश की सियासत में जैसे भूचाल आ गया और एनआरसी में नदारद लोगों के वोटों के लिए कोई इनका हिमायती बन गया, तो किसी ने घुसपैठिया करार देते हुए देश से निकाल बाहर करने का फरमान सुना दिया।
‛वोटों’ की रिश्तेदारी
पड़ोसी पश्चिम बंगाल को असम के इन 40 लाख लोगों का दर्द अपना लगा! जी नहीं, सिर्फ वोटों को अपनी तरफ समेटने की राजनीति शुरू हो गई। तभी तो, एनआरसी सामने आते ही इसमें ‛विशेष सम्प्रदाय’ को लक्ष्य करने की बात की जाने लगी और पक्ष-विपक्ष में जुबानी जंग भी ऐसी शुरू हुई कि ‛गृहयुद्ध’ तक की बात फिसलते देर न लगी। कुल मिलाकर, मुद्दे को अपने-अपने पक्ष में भुनाने एवं वोट बटोरने के लिए सभी सियासतदार ‛एनआरसी’ पर सिर्फ जुबान चला रहे हैं। नतीजतन, इस सूची में जिनके नाम नहीं हैं, उन्हें क्या करना चाहिए या आगे क्या होगा से ज्यादा राजनीतिक चर्चा गर्म है।
करोड़ों स्वाहा, हासिल क्या?
असम में नागरिकता का विवाद काफी पुराना है। 1985 में केंद्र सरकार, असम सरकार, आसू और AAGSP के बीच इस मामले को लेकर अकॉर्ड हुआ, लेकिन यह सालों लटकता चला गया। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। असम पब्लिक वर्क नाम के एनजीओ सहित कई अन्य संगठनों ने 2013 में इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। असम के विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया था। 2015 में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और निगरानी में यह काम शुरू हुआ और 2018 जुलाई में फाइनल ड्राफ्ट पेश किया गया।
मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक एनआरसी सूची तैयार करने में अब तक करीब 18 करोड़ डॉलर का खर्च आया है। इतनी बड़ी रकम खर्च करके तैयार यह सूची अभी अंतिम नहीं है। फिलहाल, जिनका नाम इसमें है उनके विरुद्ध भी किसी तरह की कोई सख्ती नहीं की जाएगी, ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने कहा है। राजनीतिक गलियारे में चर्चा का विषय यह है कि इस समय एनसीआर को सार्वजनिक कर आगामी लोकसभा चुनाव को साधने की कोशिश की जा रही है।
विकल्प अभी बाकी है
एनआरसी में जिन लोगों का नाम नहीं है उनके पास अपनी नागरिकता साबित करने का विकल्प अभी खुला है। इससे सम्बंधित आपत्तियां 30 अगस्त से 28 सितंबर के दौरान दायर की जा सकती हैं। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का मसौदा सात अक्तूबर तक जनता के लिये उपलब्ध रहेगा, ताकि वे देख सकें कि इसमें उनके नाम हैं या नहीं। केन्द्र की ओर से अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कहा कि दावों और आपत्तियों की प्रक्रिया के निष्पादन में संबंधित मंत्रालय मानक संचालन प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करने के लिये तैयार है। केंद्रीय गृह मंत्री ने भी आश्वस्त किया है कि जिनके नाम सूची में नहीं है उनके साथ किसी तरह का ज़ालिमाना बर्ताव नहीं किया जाएगा।
वोटिंग का हक बरकरार
एनआरसी में जिन लोगों का नाम अभी शामिल नहीं है, उन्हें भी फिलहाल मतदान का अधिकार है। इस सन्दर्भ में जानकारी देते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त ओ. पी. रावत ने बताया कि लोकसभा चुनाव से पहले यदि एनआरसी को अंतिम रूप नहीं भी दिया जाता है, तो वे लोग वोट डाल सकते हैं, जो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत मानदंड पूरा करते हैं यानी 18 साल की आयु के हैं। उन्होंने कहा, 'चुनाव आयोग का मतदाता नामांकन कार्य एनआरसी से अलग है. अंतिम रूप से मतदाता सूची 4 जनवरी, 2019 को प्रकाशित की जाएगी, जो आम चुनाव के लिए इस्तेमाल की जाएगी।'
कांग्रेस को हर्ज क्या!
पूर्वोतर राज्य असम में असमिया और ग़ैर-असमिया का मुद्दा दशकों पुराना है और इस पर न सिर्फ 70 के दशक में व्यापक आंदोलन हुआ, बल्कि लाखों लोगों
की जानें भी गई हैं- 1983 का नेल्ली जनसंहार में एक ही जिले में कम से कम तीन हजार मुसलमानों का क़त्ल कर दिया गया था, जिसमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे।
इसी सिलसिले में 1985 में राजीव गांधी की केंद्र सरकार, असम हुकूमत और आंदोलनकारी संगठन ऑल असम स्टूडेंस यूनियन के नेताओं के बीच समझौता हुआ जिसमें गैर-क़ानूनी घुसपैठियों की पहचान करने की शर्त शामिल थी। एनआरसी सूची तैयार करने का काम 2010 में शुरू हुआ, तब राज्य में कांग्रेस की तरुण गोगोई सरकार हुआ करती थी। हालांकि, पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर दो जिले में शुरू किए गए नागिरक रजिस्टर के काम को वहां हुई हिंसा के बाद बंद कर दिया गया, जिसमें छह लोगों की मौत हो गई थी। एनआरसी का काम फिर से 2015 में शुरू हुआ।
बांग्लादेश ने खड़े किए हाथ
अगर मान लिया जाए कि एनआरसी की फाइनल सूची आगामी सितंबर तक तैयार भी हो गई, तो इससे नदारद लोगों को बांग्लादेश भेजना आसान होगा क्या? एनआरसी के मुद्दे पर प्रतिक्रिया देते हुए बंग्लादेश के सूचना प्रसारण मंत्री हसानुल हक इनू ने कहा कि पिछले 48 सालों में किसी भी भारतीय सरकार ने बांग्लादेश के साथ अवैध प्रवास का मुद्दा नहीं उठाया है। इन लोगों का बांग्लादेश के साथ कोई लेना-देना नहीं है। आप सभी बांग्ला बोलने वाले लोगों को बांग्लादेश से नहीं जोड़ सकते हैं।
बहरहाल, आगामी लोकसभा चुनाव से ठीक पहले एनआरसी का सामने आना सियासत के सिवा और कुछ नहीं लगता। तभी, इसके सार्वजनिक होते ही वह कांग्रेस भी विरोध का राग अलापने लगी, जो इसकी सूत्रधार रही है।
■ सोनी सिंह
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