काशी सत्संग: धन्य श्रीकृष्ण और धन्य उनके भक्त - Kashi Patrika

काशी सत्संग: धन्य श्रीकृष्ण और धन्य उनके भक्त


एक बाबाजी नंदग्राम में यशोदा कुंड के पीछे निष्काम भाव से एक गुफा में काफी समय से वास करते थे। बाबा दिन में केवल एक बार संध्या के समय गुफा से बाहर शौचादि और मधुकरी के लिए निकलते थे। वृद्ध हो गए थे, इसलिए नंदग्राम छोड़कर कही नहीं जाते थे। कुछ अन्य साधुओं ने बहुत हठ किया तो बाबाजी उनके साथ श्रीगोवर्धन में नाम यज्ञ महोत्सव में चले गए।
तीन दिन बाद संध्याकाल में लौटे। अन्धकार हो गया था। गुफा में जब घुसे, तब वहां करुण कंठ से किसी को कहते सुना- बाबाजी, पिछले दो दिन से मुझे कुछ भी आहार न मिला। बाबा आश्चर्यचकित हुए और पूछा- तुम कौन हो? उत्तर मिला बाबा आप जिस कूकर को प्रतिदिन एक टूक मधुकरी का देते थे, मैं वही हूँ। बाबा को कुछ अद्भुत अनुभूति हुई, इसलिए विस्मृत भाव से बोले- आप कृपा करके अपना वास्तविक परिचय दीजिए।
वह कूकर कहने लगा- बाबा! मैं बड़ा अभागा जीव हूं। पूर्वजन्म में, मैं इसी नन्दीश्वर मंदिर का पुजारी था। एक दिन एक बड़ा लड्डू भोग के लिए आया, तो मैंने लोभवश उसका भोग न लगाया और स्वयं खा गया। उस अपराध के कारण मुझे यह भूत योनि मिली है। आप निष्किंचन वैष्णव हैं। आपकी छोड़ी हुई मधुकरी का टूक खाकर मेरी अच्छी गति होगी। इस लोभ से प्रतिदिन आपके यहां आता हूं। बाबा बोले -आप तो अप्राकृत धाम के भूत हैं। आपको तो निश्चय ही श्री युगलकिशोर के दर्शन होते होंगे। उनकी लीला प्रत्यक्ष देखते होंगे।
भूत बोला दर्शन तो होते है, लीला भी देखता हूं, लेकिन आप उसका जैसा रस ले सकते हैं, इस देह में वह योग्यता नहीं है, इसलिए व्यर्थ है। बाबा की भी दर्शन की इच्छा हुई और बोले- मुझे भी एक बार दर्शन करा दो?
भूत ने बताया कि यह उसके अधिकार के बाहर की बात है। बाबा ने कहा- दर्शन नहीं करा सकते, तो दर्शन की कोई युक्ति ही बता दो। भूत बोला- तो सुनो, कल शाम यशोदा कुंड पर जाना। संध्या समय जब ग्वालबाल वन से गौएं चराकर लौटेंगे, तो इन ग्वाल बालों में सबसे पीछे जो बालक होगा वह होंगे ‘श्री कृष्ण”। इतना बताकर वह कूकररूपी भूत चला गया।
अब तो बाबा बेचैनी में इधर-उधर फिरने लगे। रात्रि कटी। प्रातः होते ही यशोदा कुंड के पास एक झाड़ी में छिपकर शाम की प्रतीक्षा करने लगे।
मन कभी भाव उठता कि तो बड़ा अयोग्य हूं, मुझे प्रभु के दर्शन मिलना असंभव है? यह विचार कर रोते-रोते रज में लोट जाते। फिर जब ध्यान आता कि श्रीकृष्ण तो करुणासागर है मुझ दीन-हीन पर अवश्य ही कृपा करेंगे तो आनन्द मगन हो जाते? ऐसे करते शाम हो गई। बाबा ने देखा एक-एक दो-दो ग्वालबाल अपने-अपने गौओं के झुंड को हांकते चले आ रहे है। जब सब निकल गए तो सबके पीछे एक ग्वाल बाल आ रहा था, कृष्णवर्ण का।
बालक इठलाता हुआ शरीर को टेढ़ा करके चल रहा था। इन्होंने मन में जान लिया यही है जल्दी से बाहर निकल आए। उनको सादर दंडवत प्रणामकर उनके चरणकमल को पकड़ लिया फिर वार्ता शुरू हुई। बालक बोला- बाबा! मैं बनिए का बेटा हूं। आपने मेरे पैर पकड़े हैं। मुझे पाप लगेगा। मेरी मैया ने देख लिया तो मारेगी! बाबा मैं तुम्हें मधुकरी दूंगा, पर मेरा पैर छोड़ दें।
बाबा उसकी सारी बातों को अनसुनी कर विनय करने लगे- हे, मेरे प्रिय प्रभु! एक बार दर्शन देकर मेरे प्राणों को शीतल करो। हे श्रीकृष्ण! अब छल चातुरी मत करो! मुझे अपने अभय चरणकमलों में स्थान दो।
इस तरह तर्क-वितर्क करते-करते जब भक्त और भक्तवत्सल भगवान के बीच आधी रात हो गई, पर बाबाजी ने किसी तरह चरण न छोड़े, तो श्रीकृष्ण बोले- अच्छा बाबा मेरा स्वरुप देख! श्रीकृष्ण ने त्रिभंग मुरलीधर रूप में बाबा को दर्शन दिए।
तब बाबा ने कहा- मैं केवल मात्र आपका ही तो ध्यान नहीं करता, मैं तो युगल रूप का उपासक हूँ, अत: हे प्रभु! एक बार सपरिवार दर्शन देकर मेरे प्राण बचाओ!
तब श्रीश्यामसुंदर, श्री राधाजी और सखिगण के संग अलौकिक प्रकाश के साथ प्रकट हो गए। बाबा प्रभु के उस रूप में डूब गए। उनके नेत्रों से मन से, हृदय से प्रभु की छवि हटती ही न थी। बस अपनी गुफा में प्रभु का स्मरण कर नाचते गाते, आनंद विभोर रहते। प्रभु ने समझ लिया कि अब यह मेरा स्वरूप हो चुका है। उन्होंने बाबा को अपने धाम बुला लिया।
अर्थात ईश्वर में नेह लगाया, तो सब कुछ उन्हें बाबा की भांति समर्पित कर दें। आधी-अधूरी भक्ति तो फिर प्रेत वाली भक्ति ही है, जो ईश्वर के प्रत्यक्ष होने पर भी भटकाती रहेगी।
ऊं तत्सत...

No comments:

Post a Comment