कुलदीपजी नहीं रहे, अटलजी भी हमसे विदा हो लिए पीछे छोड़ गए अपनी मुखर आवाज। ये आवाजें सदियों तक उसी तरह गूंजती रहेंगी, जैसे आज भी लोगों के जेहन में ही सही यह बात जिंदा है, “खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो”। आजादी के 71 वर्ष बीत गए। इस दौरान हम तरक्की की सीढियां भी चढ़ते गए, लेकिन लगता है प्रगति की जल्दबाजी में हम अपने नैतिक मूल्यों को साथ लेना भूल गए। नतीजतन हम सीढ़ियां चढ़ते हुए काफी ऊपर पहुंच गए और नैतिकता, जिम्मेदारी, जमीर जैसे शब्द जमीन पर ही रह गए। अब इस ऊंचाई से नीचे लौटने में खतरा भी है कि कोई हमारी जगह न छीन ले, सो हम और ऊंचाई पर निगाहें टिकाए हुए हैं। हर क्षेत्र की तरह पत्रकारिता और राजनीति में भी पतन दिखाई पड़ता है। यहीँ वजह रही होगी, जो अटलजी की अंतिम विदाई ने आँखें नम कर दी! राजनीति के नैतिक, भावुक, सभ्य चेहरा विदा हो रहा था, तो हममें ह्वास का अहसास जागा। कुछ ऐसी ही स्थिति कुलदीपजी की विदाई पर भी है।
दूसरों को उनके कर्तव्य का भान कराने की कोशिश में पत्रकारिता ने अपना कर्तव्य कब चुपके से ताक पर रख छोड़ा, यह नहीं कहेंगे पता नहीं चला! समय-समय पर कुछ लोगों ने इसका विरोध किया। इसकी मुखर अभिव्यक्ति की, जिनमें कुलदीपजी भी रहे। इमरजेंसी के दौरान कुलदीप नैय्यर इंडियन एक्सप्रेस में काम कर रहे थे। 24 जून 1975, जिस रात इमरजेंसी लागू की गई थी, उस बात वो अखबार के दफ्तर में थे। उस वक्त की यादों को साझा करते हुए वे कहते, "हर वक्त खौफ का साया मंडराता रहता था। कोई अपनी जुबान नहीं खोलना चाहता था, नहीं तो उसके गिरफ़्तार होने का डर लगा रहता था। व्यवसायी और उद्योगपतियों को उनके उद्योग-धंधों पर छापा मारकर निशाना बनाया जा रहा था। मीडिया खोखली हो चुकी थी। यहां तक कि प्रेस काउंसिल ने भी चुप्पी साध रखी थी। प्रेस की आजादी की रक्षा करने के लिए यह सर्वोच्च संस्था थी।"
कुलदीपजी को शायद अपनी जिम्मेदारी का अहसास था, इसलिए वे सरकारों की आलोचना करने से नहीं चूकते थे। उन्होंने मोदी की सरकार पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि भाजपा की वर्तमान सरकार में किसी भी कैबिनेट मंत्री की कोई अहमियत नहीं रह गई है। सिर्फ उन्होंने सरकार को ही नहीं मीडिया को भी कठघरे में खड़ा किया और लिखा था, "आज लोग यह तेजी से महसूस कर रहे हैं कि अगर दशकों पहले इंदिरा गांधी का एकछत्र राज था, तो आज की तारीख़ में यही राज नरेंद्र मोदी का है। ज़्यादातर अख़बारों और टेलीविजन चैनलों ने उनके काम करने को तरीके को मान लिया है, जैसा कि इंदिरा गांधी के वक्त में कर लिया था। हालांकि, नरेंद्र मोदी का एकछत्र राज इस मामले में और बदतर हो गया है कि बीजेपी सरकार के किसी भी कैबिनेट मंत्री की कोई अहमियत नहीं रह गई है और कैबिनेट की सहमति सिर्फ कागजी कार्रवाई बन कर रह गई है। सभी राजनीतिक दलों को एकजुट होकर किसी भी इमरजेंसी जैसे हालात की मुखालफत करनी चाहिए जैसा कि पहले भी कर चुके हैं।"
बहरहाल, अभिव्यक्ति की वह मुखर आवाज मौन हो गई है, लेकिन सदियों तक गूंजती रहेगी और चंद लोगों के ही दिलों में सही मुखर रहेगी। दुष्यंत कुमार की पंक्तियों की तरह-“मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।”
■ संपादकीय
दूसरों को उनके कर्तव्य का भान कराने की कोशिश में पत्रकारिता ने अपना कर्तव्य कब चुपके से ताक पर रख छोड़ा, यह नहीं कहेंगे पता नहीं चला! समय-समय पर कुछ लोगों ने इसका विरोध किया। इसकी मुखर अभिव्यक्ति की, जिनमें कुलदीपजी भी रहे। इमरजेंसी के दौरान कुलदीप नैय्यर इंडियन एक्सप्रेस में काम कर रहे थे। 24 जून 1975, जिस रात इमरजेंसी लागू की गई थी, उस बात वो अखबार के दफ्तर में थे। उस वक्त की यादों को साझा करते हुए वे कहते, "हर वक्त खौफ का साया मंडराता रहता था। कोई अपनी जुबान नहीं खोलना चाहता था, नहीं तो उसके गिरफ़्तार होने का डर लगा रहता था। व्यवसायी और उद्योगपतियों को उनके उद्योग-धंधों पर छापा मारकर निशाना बनाया जा रहा था। मीडिया खोखली हो चुकी थी। यहां तक कि प्रेस काउंसिल ने भी चुप्पी साध रखी थी। प्रेस की आजादी की रक्षा करने के लिए यह सर्वोच्च संस्था थी।"
कुलदीपजी को शायद अपनी जिम्मेदारी का अहसास था, इसलिए वे सरकारों की आलोचना करने से नहीं चूकते थे। उन्होंने मोदी की सरकार पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि भाजपा की वर्तमान सरकार में किसी भी कैबिनेट मंत्री की कोई अहमियत नहीं रह गई है। सिर्फ उन्होंने सरकार को ही नहीं मीडिया को भी कठघरे में खड़ा किया और लिखा था, "आज लोग यह तेजी से महसूस कर रहे हैं कि अगर दशकों पहले इंदिरा गांधी का एकछत्र राज था, तो आज की तारीख़ में यही राज नरेंद्र मोदी का है। ज़्यादातर अख़बारों और टेलीविजन चैनलों ने उनके काम करने को तरीके को मान लिया है, जैसा कि इंदिरा गांधी के वक्त में कर लिया था। हालांकि, नरेंद्र मोदी का एकछत्र राज इस मामले में और बदतर हो गया है कि बीजेपी सरकार के किसी भी कैबिनेट मंत्री की कोई अहमियत नहीं रह गई है और कैबिनेट की सहमति सिर्फ कागजी कार्रवाई बन कर रह गई है। सभी राजनीतिक दलों को एकजुट होकर किसी भी इमरजेंसी जैसे हालात की मुखालफत करनी चाहिए जैसा कि पहले भी कर चुके हैं।"
बहरहाल, अभिव्यक्ति की वह मुखर आवाज मौन हो गई है, लेकिन सदियों तक गूंजती रहेगी और चंद लोगों के ही दिलों में सही मुखर रहेगी। दुष्यंत कुमार की पंक्तियों की तरह-“मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।”
■ संपादकीय
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