काशी सत्संग: दान का पाप - Kashi Patrika

काशी सत्संग: दान का पाप

 
यद् दत्त्वा तप्यते पश्चादपात्रेभ्यस्तथा च यत् ।
अश्रद्धया च यद्दानं दाननाशास्त्रयः स्वमी ॥
अर्थात- देने के बाद पश्चात्ताप होना, अपात्र को देना, और श्रद्धारहित देना-ये तीनों से दान नष्ट हो जाता है।

अपात्र को दिया दान हमें किस प्रकार कष्ट दे सकता है, इससे जुड़ी एक कथा है। एक बार एक गरीब आदमी एक सेठ के पास भोजन के लिए सहायता मांगने गया। सेठ बहुत धर्मात्मा था। उसने व्यक्ति को कुछ धन देकर विदा किया। वह व्यक्ति खुशी-खुशी एक भोजनालय गया और भरपेट भोजन किया। उसके बाद भी कुछ पैसे बच गए, जिससे उसने शराब खरीद कर पी ली। शराब पीकर वह घर पहुंचा और  पत्नी के साथ मारपीट की। इससे दुखी होकर उस व्यक्ति की पत्नी ने अपने दो बच्चों के साथ तालाब में कूद कर आत्महत्या कर ली।

कुछ समय बाद उस सेठ की भी असाध्य रोग से मृत्यु हो गई। मरने के बाद सेठ यमराज के पास पहुंचा। यमराज ने सेठ को नर्क में फेंकने का आदेश दिया। सेठ यह सुनकर घबरा गया और यमराज से बोला- आपसे गलती हुई है, मैंने तो कभी कोई पाप भी नहीं किया है, बल्कि जब भी कोई मेरे पास आया है उसकी हमेशा मदद ही की है। यमराज बोले, “हमारे यहाँ तो गलती की कोई संभावना नहीं है, गलतिया तो तुम लोग ही करते हो।” पर सेठ के अनुनय-विनय करने के पर यमराज उसे भगवान के समक्ष ले गए और सेठ की बात बताई।

सेठ बोला, “हे प्रभु! मैंने तो कोई पाप नहीं किया, फिर मुझे नर्क क्यों दिया जा रहा है।” तब भगवान ने उसे गरीब व्यक्ति को दिए धन और उसके दुरूपयोग से उसकी पत्नी और दो बच्चों की जीव हत्या की बात बताई और कहा-उन जीव हत्याओं का कारण तुम हो। सेठ बोला-प्रभु! मैंने तो एक गरीब को दान दिया और शास्त्रों में भी दान देने की बात लिखी है। तब भगवान ने कहा-तुमने दान देने से पहले पात्र की योग्यता नहीं परखी। साथ ही तुमने इस ओर भी ध्यान नहीं दिया कि उसे किस प्रकार के सहायता की आवश्यकता है। तुमने धन देकर उसकी मदद क्यों की, तुम उसको भोजन भी करा सकते थे। और रही बात उसकी दरिद्रता की तो उसे देना होता, तो मैं ही दे देता, वो जिस योग्य था उतना मैंने उसे दिया था। अब तुम्हें तीन जीव हत्याओं के पाप का फल भुगतना पड़ेगा।
ऊं तत्सत...

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