हफ्तेभर की खबरों का लेखाजोखा॥
आम जन के चश्मे से देखें तो, बीजेपी की “अटल” आस्था समाचारों में छाया रहा। अटलजी की अंतिम यात्रा में जो संवेदना दिखी थी, उसे बीजेपी के मुस्कुराते चेहरों ने सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया। वहीं, राहुल गांधी विदेशी जमीन से देश की राजनीति साधते दिखे। इन सबके बीच राज्यपालों की सियासी नियुक्ति, केरल को मिला विदेशी ऑफर, दादी-पोती की सोशल तस्वीर सुर्खियों में रही। जबकि विश्व हिंदी सम्मेलन महज खानापूर्ति बनकर रह गया, तो देश ने कुलदीप नैयर जैसे अनमोल पत्रकार को खो दिया।
“अटल” आस्था या सियासत
देश ने एक प्रिय राजनेता खो दिया। और जिस राजनीतिक दल की अटलजी ने नींव ही नहीं रखी, बल्कि उसे भारत की सियासत में खड़ा किया, वह भी उन्हें शिद्दत से याद करे, तो संदेह की गुंजाइश नहीँ होनी चाहिए। लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद जिस तरह उनकी अस्थियों को लेकर राज्यों की दहलीज लांघी जा रही है, उसने आखिर इस आस्था को सवालों के घेरे में ला दिया है। सवालों के यह तीर सिर्फ विपक्ष की ओर से नहीं दागे जा रहे, बल्कि अटलजी के परिजन की ओर से भी इस पर संदेह जताया जा रहा है। खैर, किसी के निधन या हत्या के बाद उसके सहारे बने भावुक माहौल का लाभ उठाने की यह परंपरा देश की राजनीति में नई नहीं है। किंतु, ‛अटल’ आस्था की जमीं पर सियासी गोटियां फिट करने की जरूरत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को क्यों पड़ी? वह भी ऐसी स्थिति में जब हाल ही में हुए एक सर्वे में भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों को पछाड़ कर नरेंद्र मोदी ने बाजी मार ली हो! मगर, सवाल यूँ ही नहीं उठाते! तिस पर अटलजी की कलश यात्रा दौरान सामने आने वाले बीजेपी नेताओं के खिलखिलाते चेहरे ने आस्था पर संदेह और गहरा कर दिया है।वैसे भी, अटलजी, आडवाणी की राजनीति से मोदी के राजनीतिक सिद्धान्त काफी भिन्न हैं। अपनी अलग छवि और उसूलों के कारण अटलजी लंबे समय से अपने ही दल में अनुपयुक्त हो चले थे। पार्टी के विज्ञापन से उनकी तस्वीरों को अलग किए भी अरसा हो चला था। इतना ही नहीं, तकरीबन 14 वर्षों से अटलजी का निजी जीवन मीडिया और सार्वजनिक मंच से दूर था। तो क्या! कभी अपने ही राजनीतिक दल में बेगाने हुए अटलजी के सहारे सचमुच सत्ता साधने का प्रयास किया जा रहा है! क्योंकि, हाल में किए गए हर सर्वे में बीजेपी को क्या केंद्र, क्या राज्यों के निकट विधानसभा चुनाव में नुकसान होता दिख रहा है। समय बीतने के साथ स्पष्ट बहुमत की गुंजाइश भी घटती जा रही है। उस पर विपक्षी गठजोड़ का सिरदर्द तो यहीँ इशारा करते हैं। इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन दिनों देश की सियासत आगामी लोकसभा के इर्दगिर्द ही घूम रही है।
राहुल के ‛विदेशी’ तीर, कितने असरदार
राहुल गांधी इन दिनों विदेश से वर्तमान बीजेपी सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं और इसे लेकर में देश में सुर्खियां भी बटोर रहे हैं। तो क्या, कांग्रेस के रणनीतिकारों को लगता है कि विदेशी धरती पर बयान देकर राहुल देश की जनता का वोट जीत लेंगे! ये तो वक्त ही बताएगा। फिलहाल, राहुल गांधी ने विकास, बेरोजगारी, मॉब लिचिंग,जीएसटी, नोटबंदी, विदेश नीति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कठघरे में खड़ा किया, तो आरएसएस को भी नहीं बख्शा। आरएसएस उन्हें एक ऐसे संगठन के तौर पर नजर आया, जो अतिवाद की वकालत करता है और वो अरब देशों की मुस्लिम ब्रदरहुड की तरह है। राहुल गांधी ने ‛सिख दंगे’ से कांग्रेस का सरोकार न होने की बात कहकर बीजेपी को विरोध के लिए एक और मुद्दा थमा दिया। राहुल गांधी के बयानों से नाराज बीजेपी राहुल पर विदेश में देश की छवि खराब करने का आरोप लगा रही है। लेकिन राहुल गांधी लगातार जुबानी जंग आगे बढ़ाते दिख रहे हैं। उन्होंने अपनी पार्टी को भी घमंडी करार देते हुए स्वीकार किया कि यूपीए की दस साल की सरकार में कांग्रेस के भीतर भी घमंड आ गया था, लेकिन 2014 के आम चुनावों में मिली हार ने पार्टी का घमंड तोड़ा। राहुल ने कहा, “हमने इस हार से सबक सीखा है।” सत्ता में वापसी के लिए बेकरार कांग्रेस की यह रणनीति कितना काम आती है, यह तो आने वाला वक्त बताएगा। फिलहाल, राहुल गांधी लगातार अपनी भाषण कला को संवारने की कोशिश में जुटे दिख रहे हैं। हालांकि, नरेंद्र मोदी की भाषण कला के सामने राहुल गांधी की हिंदी में अस्वाभाविक भाषण शैली है। इसे भी नकारा नहीं जा सकता कि सड़कें बनी हैं, डिज़िटल कनेक्टिविटी में सुधार हो रहा है, इंटरनेट से चलने वाले व्यवसाय से लोगों के काम करने का तरीका बदल रहा है। जीएसटी से कांग्रेस खुद को अलग नहीं कर सकती। कुल मिलाकर, राहुल के सहारे कांग्रेस अपनी सियासी जमीन कितना तलाश पाती है, ये तो वक्त बताएगा। राहुल के भाषण इशारा हैं कि कांग्रेस बीजेपी को उसके ही मुद्दों पर घेरने की तैयारी में है।
इस सप्ताह देश के तीन राज्यों में नए राज्यपालों की नियुक्ति और कुछ राज्यों के राज्यपालों का स्थानांतरण भी सियासत से प्रेरित लगता है। इन नियुक्तियों पर गौर करें, तो पाएंगे कि बीजेपी का पूरी तरह उत्तर प्रदेश और बिहार के जातीय समीकरण को साधने पर ध्यान रहा है। जम्मू-कश्मीर में लंबे समय बाद किसी पूर्व राजनेता को राज्यपाल के पद पर बिठाया गया है। सत्यपाल मलिक की नियुक्ति को महत्वपूर्ण बदलावों का संकेत माना जा सकता है। समाजवादी पृष्ठभूमि से जुड़े सत्यपाल मलिक ने चौधरी चरण सिंह और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे नेताओं के साथ राजनीतिक सफर तय किया है और वे मूल रूप से आरएसएस की पृष्ठभूमि वाले राजनेता नहीं है। भाजपा में उनका आगमन 2004 में हुआ और अभी वे बिहार के राज्यपाल का कार्यभार संभाल रहे थे। मलिक विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री थे और उसके नाते तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनके सहयोगियों से उनके अच्छे संबंध रहे हैं। उनकी इस राजनीतिक पूंजी का इस्तेमाल वार्ताएं करने और विभिन्न क्षेत्रों में विकास संबंधी असंतुलन को दूर करने की नीति बनाने में किया जा सकेगा। मौजूदा केंद्र सरकार की चिंता में जम्मू, घाटी और लद्दाख के बीच क्षेत्रीय असंतुलन प्रमुख मुद्दा है। सरकार अनुच्छेद 35 ए और 370 के बारे में भी कश्मकश में है। वहीँ, बिहार के नये राज्यपाल का पद लालजी टंडन को देकर उनसे 2014 में किया गया वादा पूरा करने की कोशिश की गई है। सूत्रों के अनुसार उस समय लखनऊ संसदीय सीट राजनाथ सिंह के लिए मांगी गयी थी। इसके अलावा लालजी टंडन को राज्यपाल बनाकर वैश्य समुदाय को खुश करने का प्रयास भी किया गया है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के आगरा से भाजपा नेता बेबी रानी मौर्य को उत्तराखंड की राज्यपाल नियुक्त किया गया है, जो वर्ष 1995 से 2000 के बीच आगरा की मेयर रह चुकी हैं। बेबी रानी मौर्य की राज्यपाल पद पर नियुक्ति पिछड़ा समाज को लुभाने का कदम माना जा रहा है।
इसके अलावा बिहार के नालंदा की राजगीर विधानसभा सीट से आठ बार भाजपा के विधायक रहे सत्यदेव नारायण आर्य को हरियाणा का राज्यपाल बनाकर पार्टी के प्रति निष्ठा रखने का तोहफा दिया गया है। इसी तरह हरियाणा के निवर्तमान राज्यपाल कप्तान सिंह सोलंकी को त्रिपुरा भेजना, त्रिपुरा के अभी तक राज्यपाल रहे तथागत राय को मेघालय भेजना भी राजनीति से प्रेरित है। उत्तर प्रदेश से ही संबंध रखने वाले गंगाप्रसाद का तबादला सिक्किम कर दिया गया है, संभव है इसके पीछे भी भाजपा का कोई राजनीतिक कदम हो। बहरहाल, सच यह है कि राज्यपाल के संवैधानिक पद पर नियुक्तियां राजनीति से प्रेरित रही हैं और सभी पार्टियां इसके जरिये अपनी राजनीति साधती रही हैं। फिलहाल तो कई और नाम राज्यपाल बनाये जाने की प्रतीक्षा सूची में हैं। इनमें दिल्ली से विजय कुमार मल्होत्रा और उत्तर प्रदेश से कलराज मिश्रा का नाम प्रमुख है।
महज खानापूर्ति: मॉरिशस में विश्व हिंदी सम्मेलन
मॉरिशस में आयोजित 11वां विश्व हिंदी सम्मेलन तीन दिन चला। 18, 19 और 20 अगस्त, जो महज एक खानापूर्ति बनकर रह गई। वैसे, अटलजी के अवसान को इसकी वजह माना बताया जा रहा है, जिससे सम्मेलन को मीडिया कवरेज नहीं मिल पाया। लेकिन, चैनल कांवरियों की घटना को महत्वपूर्ण मानकर उनपर बहस कर सकते हैं, फिर विश्व हिंदी सम्मेलन अनदेखा कैसे रह गया। कहीं हिंदी सम्मेलन से टीआरपी नहीं मिलती, जो सांप्रदायिक खबरों दे मिलती है यह भी कारण रहा हो! कुछ हिंदी अखबारों में थोड़ी-बहुत खबर छपी, वह भी उल्टी-सीधी। खबरों के मुताबिक,
देश के अनेक मूर्धन्य साहित्यकारों, हिंदीसेवियों और हिंदी पत्रकारों को निमंत्रण तक नहीं भेजे गए। सरकार की मंशा भी सन्देहास्पद है, क्योंकि एक तरफ कुंभ को लेकर इतने प्रयास हो रहे हैं, तो हिंदीप्रेमी सरकार ने ऐसी अनदेखी क्यों की!!
एक तस्वीर संवेदना की
सोशल मीडिया पर वायरल हुई एक तस्वीर ने देशभर के लोगों की मानवीय संवेदना को झकझोरा, जो साबित करता है कि शायद मानवता कहीँ जिन्दा है। मॉब लिचिंग की बढ़ती घटनाएं, कांवरियों पर हमला जैसी घटनाओं को देखते हुए तो यहीँ लगता था, देश में संवेदना और मानवता की जगह नहीं रह गई है। खैर, दादी और पोती की यह तस्वीर 11 साल पुरानी 12 सितंबर, साल 2007 की निकली। और तस्वीर के पीछे की कहानी भी अलग रही। गुजरात के अहमदाबाद की इस तस्वीर में दादी दमंयती बेन और उनकी पोती भक्ति है। दादी का कहना है, “मैं अपनी मर्ज़ी से यहां रह रही हूं। हमारे बीच कोई नफ़रत नहीं थी। आज भी परिवार से अच्छे संबंध हैं।” भक्ति ने भी यही कहा कि उस वक्त दादी यहां मिल जाएंगी, मुझे यकीन नहीं था, सो मैं अत्यधिक भावुक हो गई। आज भी दादी मुझे माता-पिता से ज्यादा प्रिय हैं। सच यह है कि 11 साल पुरानी यह तस्वीर कल्पित भचेच ने खींची थी, जो फोटोग्राफी डे पर फिर वायरल हो गई। उस समय यह तस्वीर दिव्य भास्कर में छपी थी।
अन्ततः मोहम्मद अल्वी की पंक्तियां,
“घर में सामां तो हो दिलचस्पी का,
हादिसा कोई उठा ले जाऊँ।
इक दिया देर से जलता होगा,
साथ थोड़ी सी हवा ले जाऊँ॥”
■ सोनी सिंह
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