मिर्च मसाला - Kashi Patrika

मिर्च मसाला

देश का स्वर्णयुग गुप्तकाल था। एक ओर बड़े-बड़े मंदिरों देवालयों का निर्माण हो रहा था, तो दूसरी ओर भारत का व्यापार भी खूब फल-फूल रहा था। धर्म और अर्थ का ऐसा संगम देश ने फिर नहीं देखा। देखा तो कभी विदेशी आक्रांताओं का कोप तो कभी अंग्रेजों की गुलामी। अब ये समय इतना लम्बा हो गया कि एकबारगी लगा कि देश को गुलामी की आदत ही पड़ जाएगी। पर हुआ इसके ठीक विपरीत देश ने आजादी की जंग लड़ी और 1947 में बकायदा आजादी भी पाई। अभी आजादी के 70 साल ही हुए है कि लोग आजादी से उकताने लगें हैं कई तो ये भी कहते सुने जाते हैं कि इससे बढ़िया अंग्रेजों,चीनियों या अमेरिका की गुलामी है। तो क्यों न हम उनकी इस सनक को दूर कर दें और देश की गुलामी और आजादी का कुछ विश्लेषण करें...

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं
क्रान्तिकारी बिस्मिल 'अज़ीमाबादी' की ये पंक्तियां आजादी के दीवानों के लिए किसी राष्ट्रगीत से कम नहीं था।हंसते-हंसते आजादी के परवानो ने आजाद भारत के सपने के साथ कई कुर्बानियां दी। उनसे प्रेरणा लेकर
भारतियों ने अंग्रेजी हुकूमत के अंदर ही अंदर आजाद हिन्द फौज नाम की एक बड़ी सेना का भी निर्माण कर लिया। अब उन्हें क्या मालूम था कि एक दौर ऐसा भी आएगा जिसमें आजाद रहते हुए भी आपको निजीकरण के कारण किसी न किसी का गुलाम रहना होगा। आप माने या न माने जिस बड़े पैमाने पर देश में निजीकरण की आंधी बह रही हैं वो हमें आपको कुछ सालों बाद फिर से गुलाम बनाने के लिए पर्याप्त हैं। तो क्या निजीकरण इतनी बुरी चीज है। बिल्कुल! अगर सरकार इसका इस्तेमाल अव्यवस्था से पल्ला झाड़ने और व्यवस्था के नाम पर लाल किले को निजी हाथों में दे, तो है। खैर, बात पुरानी हो गई तो भूल जाइए हालिया घटना दोहराते हैं जिसमें एक निजी कंपनी के प्रस्तावित विश्वविद्यालय को यूजीसी के द्वारा 'एक्सीलेंस' का दर्जा दिया गया। अब जब विश्वविद्यालय बना ही नहीं तो एक्सीलेंस कैसे? हालाकिं, शिक्षा का निजीकरण तो तभी शुरू हो गया था जब सरकारी विद्यालयों की अव्यवस्था का हवाला देकर निजी विद्यालयों ने पूरे भारत में जड़े फैलाई थी। अब जब देश के अंदर ही किसी व्यक्ति को निजी कंपनी की गुलामी की आदत लग जाए तो फिर वो विदेशियों की गुलामी से क्यों घबराए।  आप को बताते चले कि देश में ऐसी भी समाजसेवी पैदा हुए हैं, जिन्होंने दान लेकर एशिया के सबसे बड़े विश्वविद्यालय का निर्माण किया।

प्रत्यक्ष निर्भरता या परोक्ष समर्पण
आजादी के दीवानों ने कभी ये सपना नहीं देखा की आजाद भारत किसी भी अन्य देश पर परोक्ष या अपरोक्ष रूप
से निर्भर रहे। ऐसा नहीं हैं कि उन्होंने केवल सपना ही देखा वरन उन्हें भारत की क्षमता पर पूरा विश्वास भी था। पर आजादी के बाद हम कही खो गए। स्थिति तब और बदत्तर हो गई जब 1990 के दशक में हमने उदारीकरण का रास्ता अपनाया। इसके बाद से हम देश को तकनीकी की दिशा में तेजी से ले जाना भूल गए। आज स्थिति ऐसी हैं कि देश को बहुत सी वस्तुओं के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता हैं। पेट्रोल, मशीनरी, आधुनिक तकनीक ये सभी कुछ देश कम मात्रा में इकठ्ठा कर पाता हैं। सवाल तो तब पैदा होता है, जब हम धड़ल्ले से इन सामग्रियों का आयात करते हैं और उन्हें अपने यहाँ पैदा करने की या उसके विकल्प के विषय में विचार नहीं करते। इस परोक्ष निर्भरता ने धीरे-धीरे हमें प्रत्यक्ष समर्पण की ओर ले जाने का काम किया। खैर, अब तो कोई स्वदेशी का विचार भी जोर-शोर से नहीं उठता तो इसे किताबों में धूल खाने को ही छोड़ा जाए तो बेहतर हैं।

अब बात निकली ही हैं तो ये भी बताते चले कि आजादी के दीवानों ने गुलामी से बेहतर मौत कहा है।
सिद्धार्थ सिंह

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