आँखों का था कुसूर न दिल का कुसूर था - Kashi Patrika

आँखों का था कुसूर न दिल का कुसूर था


आँखों का था कुसूर न दिल का कुसूर था,
आया जो मेरे सामने मेरा गुरूर था।

वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था,
आता न था नजर को नजर का कुसूर था

कोई तो दर्दमंदे-दिले-नासुबूर था,
माना कि तुम न थे, कोई तुम-सा जरूर था।

लगते ही ठेस टूट गया साजे-आरजू,
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर-चूर था।

ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश,
शामिल किसी का खूने-तमन्ना जरूर था।

साकी की चश्मे-मस्त का क्या कीजिए बयान,
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था।

जिस दिल को तुमने लुत्फ से अपना बना लिया,
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर जरूर था।

देखा था कल ‘जिगर’ को सरे-राहे-मैकदा, 
इस दर्जा पी गया था कि नश्शे में चूर था।
■ जिगर मुरादाबादी

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