कई बार हम सुधरने की जग़ह सुधारने का काम ले लेते हैं। औऱ जीवन का उदेश्य स्वमं को तपाने, पीटने,गलाने औऱ खरा बना कर सुन्दर स्वर्ण आभूषण की तहर अदभुत बनाने के स्थान पर दूसरो की कमियां ढूंढते रहने में ही अपना अमूल्य समय गवाते रह जाते हैं। अपनी ऊर्जा क्यूँ हम नकारात्म की ख़ोज में ख़र्च करने लगते है ?
एक बार मन की इस उलझन को लेकर जब अपनी एक शिक्षिका के पास गयी , उनसे पूछा ,' न चाहते हुए भी मैं बार-बार अपने वातावरण , व्यक्ति औऱ परिस्थितियों का विश्लेषण करने लग जाती हूँ। किसी न किसी प्रकार दोष उनमें ही निकालती हूँ। कैसे इससे बचा जाये। '
शिक्षिका जो के विषय-ज्ञान में तो श्रेष्ठ थीं ही जीवन-दर्शन भी किसी अच्छी किताब की तरह समझा देतीं थीं , उन्होंने बहुत ही कम शब्दों में उपाए बता दिया , बोलीं ,' दूसरो को ग़लत ही सिद्ध करके इस निष्कर्ष को पा लेने के बाद भी तुम्हारे हाथ क्या लगेगा ? इस प्रश्न को दुहराते रहो। स्वंम से हर बार प्रश्न करो , मेरी ऊर्जा जो खर्च की हैं मैने उससे क्या अर्जित किया है। कौन का ख़जाना गढ़ पायीं हूँ। एक छणिक विजय के अभिमान के लिए दिन का एक पहर लगा दिया है, क्या होता अगर स्वंम को गढ़ने में ही यह अमूल्य समय लगा दूँ तो !... "
यह बहुत बार सुना है के समय सबो को सामान ही दिया है विधाता ने, कुछ लोग मानव के मानव होने की कहाँनी ढूंढने में रम जाते हैं औऱ बाक़ी की भीड़ , भेड़चाल में लग जाती है।
मैं बार-बार अपनी आदरणीय शिक्षिका के शब्द को दोहराती रहतीं हूँ ,' तुम स्वयं को ही ढूँढा करो। .... "
-अदिति-
Wow. Lovely thoughts Aditi. It's very thought provoking and inspiring.
ReplyDeleteThank you !! It counts ..
DeletePls keep posting such views dear
ReplyDeleteEncouraging words r fuel for writing.. thxx
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