काशी सत्संग: ‛दान बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान’ - Kashi Patrika

काशी सत्संग: ‛दान बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान’


एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल दिए, इस अंधविश्वास के कारण कि भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देखकर दूसरों को भी लगता है कि इसे पहले से ही किसी ने कुछ दे रखा है।
पूर्णिमा का दिन था। भिखारी सोच रहा था कि आज अगर ईश्वर की कृपा होगी, तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती हुई दिखाई दी।

भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा कि राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से आज तो उसकी सारी दरिद्रता दूर हो जाएंगी और उसका जीवन संवर जाएगा। जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रूकवाया और उतर कर उसके निकट पहुंचे।

भिखारी की तो मानो सांसें ही रूकने लगीं, लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उल्टे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और उससे भीख की याचना करने लगा। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुनः याचना की। भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था।
जैसे-तैसे करके उसने दो दाने जौ के निकाले और राजा की चादर में डाल दिए। उस दिन हालांकि भिखारी को अधिक भीख मिली, लेकिन अपनी झोली में से दो दाने जौ के देने का मलाल उसे सारा दिन रहा। शाम को जब उसने अपनी झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही।

जो जौ वह अपने साथ झोली में ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। अब उसे समझ में आया कि यह दान की महिमा के कारण ही हुआ। वह पछताया कि- काश! उस समय उसने राजा को और अधिक जौ दिए होते, लेकिन दे नहीं सका, क्योंकि उसकी देने की आदत जो नहीं थी। काश मनुष्य समझ पाता कि अंधेरे में छाया, बुढ़ापे में काया और अन्त समय में माया किसी का साथ नहीं देती।
दान बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान।
कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान।।
अर्थात् जिसके पास धन नहीं है वह तो दुःखी है ही किन्तु उससे ज्यादा दुःखी वह है जिसके पास धन है क्योंकि उसको अधिक धन पाने की लालसा बनी रहती है। जो भव्यात्मा उसी धन में से थोड़ा धन दान आदि पवित्र कार्यों में लगा देते हैं वे ही ‘‘दाता’’ कहलाते हैं, इसलिए सज्जन पुरुष प्रतिदिन उत्तम पात्रों में दान देकर ही अपने दिन को सार्थक मानते हैं
ऊं तत्सत...

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