साहित्यिक झरोखा: अहमदाबाद के संत “दादू दयाल” - Kashi Patrika

साहित्यिक झरोखा: अहमदाबाद के संत “दादू दयाल”


दादूदयाल (1544-1603 ई.) हिन्दी के भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्त कवि थे। इनके 52 पट्टशिष्य थे, जिनमें गरीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना मुख्य हैं। दादू के नाम से 'दादू पंथ' चल पड़ा। ये अत्यधिक दयालु थे। इस कारण इनका नाम 'दादू दयाल' पड़ गया। दादू हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी आदि कई भाषाओं के ज्ञाता थे। इन्होंने शबद और साखी लिखीं। इनकी रचना प्रेमभावपूर्ण है। जात-पाँत के निराकरण, हिन्दू-मुसलमानों की एकता आदि विषयों पर इनके पद तर्क-प्रेरित न होकर हृदय-प्रेरित हैं। 

सन्त दादूदयाल जी महाराज का अवतार संवत् 1601 वि. में भारतवर्ष के गुजरात राज्य के अहमदाबाद नगर में हुआ था। कहा जाता है कि लोदी राम नामक ब्राह्मण को साबरमती में बहता हुआ एक बालक मिला। अधेड़ आयु के उपरांत भी लोधीराम के कोई पुत्र नहीं था जिसकी उन्हें सदा लालसा रहती थी। एक दिन उन्हें एक सिद्ध संत के दर्शन हुए और उन्होंने अपनी हार्दिक व्यथा उन संत को कह सुनाई। संत ने शरणागत जानकर लोधीरम को पुत्र रत्न की प्राप्ति का वरदान दिया और कहा "साबरमती नदी में तैरते कमल पत्र पर शयन करते बालक को अपने घर ले आना वही तुम्हारा पुत्र होगा" पुत्र प्राप्ति की कामना लेकर श्री लोधीरम ब्राहमण साबरमती नदी के तट पर गए जहाँ उन्हें पानी पर तैरते कमल पर लेटा हुआ बालक प्राप्त हुआ। इस प्रकार शुभमिति फाल्गुन शुक्ल अष्टमी गुरुवार के दिन विक्रम संवत 1601 में संत शिरोमणि सदगुरु श्री दादू दयाल जी महाराज का अवतार हुआ।
विक्रम सं. 1620 में 12 वर्ष की अवस्था में दादूजी गृह त्याग कर सत्संग के लिए निकल पड़े, केवल प्रभु चिंतन में ही लीन हो गए। अहमदाबाद से प्रस्थान कर भ्रमण करते हुए राजस्थान की आबू पर्वतमाला, तीर्थराज पुष्कर से होते हुए करडाला धाम (जिला जयपुर) पधारे और पूरे 6 वर्षों तक लगातार प्रभु की साधना की। कबीर के बोध को जन-जन तक पहुँचाने में दादूपंथी संतों की बड़ी भूमिका है। संख्या की दृष्टि से दादू के जीवन में ही जितनी बड़ी संख्या में शिष्य-प्रशिष्य दादू के बने, सम्भवतः उतने शिष्य किसी अन्य संत के नहीं।

पूजे पाहन पानी

दादू दुनिया दीवानी, पूजे पाहन पानी।
गढ़ मूरत मंदिर में थापी, निव निव करत सलामी।
चन्दन फूल अछत सिव ऊपर बकरा भेट भवानी।
छप्पन भोग लगे ठाकुर को पावत चेतन न प्रानी।
धाय-धाय तीरथ को ध्यावे, साध संग नहिं मानी।
ताते पड़े करम बस फन्दे भरमें चारों खानी।
बिन सत्संग सार नहिं पावै फिर-फिर भरम भुलानी।

दादू दयाल की वाणीइसक अलाह की जाति है, इसक अलाह का अंग।
इसक अलाह औजूद है, इसक अलाह का रंग।।
घीव दूध में रमि रह्या सबही ठौर।
दादू बकता बहुत है, मथि काढैं ते और।।
कहैं लखैं सो मानवी, सैन लखै सो साध।
मन की लखै सु देवता, दादू अगम अगाध।।
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