बेबाक हस्तक्षेप - Kashi Patrika

बेबाक हस्तक्षेप

पहले गर्मी से त्रस्त लोग बरसात का इन्तजार करते हैं, फिर बरसात की शुरुआत के साथ ही उनकी कठिनाइयां और बढ़ने लगती हैं। एक बार फिर जनता मुसीबतों से दो-चार हो रही है और शासन-प्रशासन लाचार है। उत्तर प्रदेश के तकरीबन 72 जिले बरसात के कारण विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे हैं। यूपी में 1 जुलाई से 1 अगस्त के बीच हुई भारी बारिश के कारण हुए हादसों में 154 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि अब तक 131 लोग घायल हुए हैं। इस अवधि में 187 मवेशियों की मौत हुई है, जबकि 1,259 मकान क्षतिग्रस्त हुए हैं। जलभराव सिर्फ सद्क
सड़क पर ही नहीं है, बल्कि मकानों के साथ ही अस्पताल भी जलमग्न हैं। राजधानी लखनऊ में भी स्थिति बेहतर नहीं है। ऐसा नहीं की उत्तर प्रदेश ही बरसात के कारण बेहाल है। 28 जुलाई तक प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक देश भर में बारिश से जीवन अस्त-व्यस्त है। उत्तर प्रदेश से लेकर बंगाल तक और राजस्थान से लेकर महाराष्ट्र तक बाढ़-बारिश ने 465 से ज्यादा लोगों की जान ले ली है। सरकार की ओर से 28 जुलाई तक के आंकड़ों के अनुसार 5 राज्यों में असम, गुजरात, केरल, बंगाल, महाराष्ट्र में कुल 465 लोगों की मौत हो चुकी है। बरसात के कारण सिर्फ जान ही नहीं गंवानी पड़ती है, बल्कि गांव के गांव बह जाते हैं।
नागरिकता को लेकर पिछले कई दिनों से चर्चा में बने पूर्वात्तर राज्य असम में अब तक 1,224 गांव बारिश से प्रभावित हुए हैं और 10,17,968 लोगों पर इसका गहरा असर पड़ा है। राज्य में इसकी वजह से 428 घर पूरी तरह से तबाह हो गए हैं और 4609 घरों पर आंशिक तौर पर से इसका असर पड़ा है। 34921 लोगों के आपात स्थिति से बचाकर निकाला गया है। क्या इसे लेकर संसद से लेकर सड़क तक कोई चर्चा हुई? चिंता का विषय यह है कि तकरीबन हर वर्ष स्थिति और बिगड़ती जा रही है।
मानसून सत्र में सरकार से लेकर विपक्ष तक विभिन्न मुद्दों पर गरमागरम बहस करता है, लेकिन इन हालातों पर न कोई बहस होती है, न कोई हल निकलता है। इतना जरूर है कि जिन राज्यों की विधानसभाओं में तात्कालिक विपक्ष बरसात से आई मुसीबतों पर सरकार को घेरता है, फिर स्वयं सत्ता पाते इन मुद्दों को ठंडे बस्ते में रख दिया जाता है। इनसे इतर आम जन बरसात न हो, तब भी मुसीबत में होता है और अगर बादल जरा मन से बरस जाएं तो और ज्यादा मुसीबतों में फंस जाता है। शासन-प्रशासन लाचारगी जाहिर कर अगली बार समस्याओं के समाधान का वादा कर फिर सुस्त हो जाता है। यूँ लगता है जनता, सरकार और प्रशासन सबको इन सबकी आदत सी पड़ गई है।
■ संपादकीय

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