बुद्धि और हृदय - Kashi Patrika

बुद्धि और हृदय

बुद्धि और हृदय जब तक न मिल जाएं, तुम जीवन की अग्नि से बच न पाओगे। बुद्धि अंधी है। अकेले, हृदय भी पंगु है, बुद्धि भी पंगु है; जुड़ कर दोनों पूर्ण हो जाते हैं...

बुद्धि और हृदय दोनों तुम्हारे पास हैं; दोनों का उपयोग कर लेना है। तो ज्ञान को भक्ति का सहारा बनाओ, भक्ति को ज्ञान का सहारा बनाओ। दोनों तुम्हारे पंख बन जाएं, तुम आकाश में उड़ सकोगे। न तो एक पंख से कभी कोई पक्षी उड़ा है, न एक पैर से कोई प्राणी चला है, न एक पतवार से नाव चलती है; दोनों पतवार चाहिए। कोई विरोध नहीं है। और जिन्होंने तुमसे कहा है विरोध है, उन्होंने गलत कहा है। और गलत कहने का कारण यही है कि उन्होंने भी इस महासमन्वय को नहीं जाना। या तो वे बुद्धि से घिरे हुए लोग होंगे, जिनके पास कोरे विचार हैं, शुष्क विचार हैं, तर्क हैं, लेकिन हृदय का कोई नृत्य घटित नहीं हुआ है। या फिर वे हृदय के लोग होंगे, सीधे-सादे; नाच तो सकते हैं, समझ नहीं है।
उस घड़ी को परम सौभाग्य की घड़ी मानना, जब तुम समझपूर्वक नाच सको। उस घड़ी को परम सौभाग्य मानना, जब तुम विवेकपूर्वक प्रेम कर सको। और परमात्मा ने तुम्हें जो भी दिया है, उसमें किसी का भी अस्वीकार मत करना,क्योंकि उतने ही अंश में तुम पंगु हो जाओगे। तुम पूरे हो, सिर्फ संयोग बिठाना है। वीणा रखी है, तार पड़े हैं; लेकिन तारों को वीणा पर जोड़ना है। तारों को कसना है, साज बिठाना है। तुम्हारे भीतर सब मौजूद है, सिर्फ संयोग मौजूद नहीं है। उस संयोग का नाम ही साधना है कि तुम्हारे भीतर की वीणा और तार मिल जाएं।
■ ओशो

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